आत्मा के गुण – सनातन धर्म

(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)

ऊँ तत् सत्; दाता याद है!

हम इस जीवन में प्रवेश करते हैं। ‘हम’ से मेरा मतलब है – आत्मा। आत्मा जो कि अनश्वर है, नश्वर नहीं हैं। ‘काल’ के अतिरिक्त, ईश्वर और जीव, जीव यानि आत्मा, ये दो चीजें भी नश्वर नहीं हैं। तो पाँच बुनियादी सत्यों में से तीन सत्य हैं, ईश्वर, जीव और काल, जो कि नश्वर नहीं हैं। दूसरे दो बुनियादि सत्य – भौतिक प्रकृति और कर्म नश्वर हैं। भौतिक प्रकृति समयबद्ध और अस्थायी है, और इसलिए नश्वर है। कर्मों का प्रभाव लंबा होने की वजह से कर्म अनश्वर प्रतीत हो सकते हैं, पर वास्तव में कर्म भी नश्वर हैं।

हम जीव या आत्मा इस जीवन में देह रुप द्वारा प्रवेश करते हैं। तो एक अनश्वर नश्वर में प्रवेश करता है। भौतिक प्रकृति में प्रवेश करता है। इस देह में आता है जो कि भौतिक प्रकृति का हिस्सा है, और इसलिए नश्वर है, अल्पकालिक है।

तो जीव का जो कि अनश्वर है, नश्वर भौतिक प्रकृति में प्रवेश करना क्या उद्देश्य है? कुछ तो होगा, अन्यथा एक अनश्वर को नश्वर में क्यों आना पड़े? उद्देश्य है,  और वो उद्देश्य है अपने सनातन धर्म को जानना, अपने सनातन धर्म को पाना।

सनातन धर्म से मेरा क्या मतलब है? सनातन धर्म से मेरा मतलब किसी साम्प्रदायिक प्रक्रिया से नहीं है। किसी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बुद्ध, यहूदी या ऐसी किसी साम्प्रदायिक प्रक्रिया से मेरा कोई मतलब नहीं है। जब मैं सनातन धर्म की बात करता हूँ, तो सनातन धर्म का मतलब है हमारे मूल संस्कार, हमारा आॅरिजनल धर्म। धर्म की व्याख्या हम बेशक साम्प्रदायिक प्रक्रियाओं के रुप में कर सकते हैं – हिन्दू, मुस्लिम, सिख इत्यादि के रुप में। लेकिन मेरा जो धर्म से मतलब है वो बिल्कुल अलग है। मेरा धर्म से मतलब है, जो हमारा प्राकृतिक स्वभाव है। तो हम आत्मा अपने सनातन धर्म के उद्देश्य को पूर्ण रुप से पाने के लिए, पाने की उस प्रक्रिया से गुजरने के लिए और अपने सभी कर्मों के प्रभाव से मुक्त होने के लिए इस नश्वर देह में प्रवेश करते हैं। आप उसे एनलाईटनमेंट का नाम दीजिए या आप उसे ज्ञान की प्राप्ति या मोक्ष कहिये। जो हमारे आॅरिजनल प्राकृतिक स्वभाव हैं, उन स्वभावों को जानना, उन स्वभावों को अपने में महसूस करना और उन स्वभावों को पूर्ण रुप से प्राप्त करना, ये उद्देश्य है इस जीवन में आने का। अगर आप इस नश्वर संसार में, देह में, इस भौतिक प्रकृति में जन्म नहीं लेंगे तो आप उन संस्कारों को प्राप्त नहीं कर सकते। तो ये प्रक्रिया है, ये एक कार्य है, ये एक उद्देश्य है, इस जीवन का।

भौतिक संसार का यह नियम है कि यह अस्थाई है। अस्तित्व में आता है, कुछ उत्पाद करता है, और गायब हो जाता है। यह अस्थाई अस्तित्व है, जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है। लेकिन इस दुनिया से परे, इस भौतिक प्रकृति से परे, एक और प्रकृति है, जो सनातन है, शाश्वत है। जीव (आत्मा) सनातन है, दाता भी सनातन है। सनातन से मेरा मतलब है, लगातार। जिसका ना कोई आदि है, ना ही कोई अंत। हमेशा से है और रहेगा।

इस जीवन में आने का हमारा उद्देश्य, हमारे सनातन व्यवसाय को, इटरनल औक्यूपेशन को पूनर्जीवित करना है। और इसी उद्देश्य के साथ आप बार-बार, बारम्बार जन्म लेते हैं। और जीवन में आने के बाद, सामाजिक अनुबन्धनों के कारण, हम अपने उद्देश्य को भूल जाते हैं और यहाँ तक की उस उद्देश्य की प्राप्ति की खोज भी शुरु नहीं होती। तो आप फिर से जन्म लेते हैं।

वस्तुतः हमारे सनातन व्यवसाय को, सनातन गुणों को पूनर्जीवित करना ही सनातन धर्म है। सनातन का अर्थ है, जो हमेशा से आपके पास है, हमेशा से आपके अंदर है, लेकिन कहीं खो गया है, पूर्णरुपेण सचेत नहीं है, पूर्णावस्था में नहीं है – उसको पूनर्जीवित करना है। आपको वो डिस्कवर करना है। आपको अपने आपको रिडिस्कवर करना है, और यही धर्म है। यही रिलिजन है।

कई बार जब पूछा जाता है तो मैं बोलता हूँ कि मैं रिलीजियस हूँ। मैं धार्मिक हूँ, मैं धर्म में विश्वास करता हूँ, लेकिन किसी विशेष साम्प्रदायिक प्रक्रिया में नहीं।

विभिन्न धर्मों में हमारा धार्मिक दर्शन विश्वास के विचार को व्यक्त करता है। बिलीफ सिस्टम। अलग-अलग धर्मों में मौलिक समानता होते हुए भी विभिन्न बिलीफ सिस्टम हैं। एक विश्वास का विचार है, और विचार समय के साथ बदल सकता है। आज आप हिन्दू हैं। आप धर्म परिवर्तन कर सकते हैं। आपका बिलीफ सिस्टम बदल सकता है। आप इसाई हैं, आप कुछ ओर बन सकते हैं। आपका विचार, आपका विश्वास बदल सकता है। तो विश्वास समय के साथ बदल सकता है। आज आप कुछ भी हैं, किसी भी धर्म या आस्था में विश्वास करते हैं। आप हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं, सिख हैं, इसाई हैं, कुछ भी हैं। ये आस्था और विश्वास, इस शरीर के साथ खत्म हो जाएगा, और जब आप दोबारा जन्म लेंगे, तो नई आस्था या विश्वास इस बात पर निर्भर करेगा कि आपने कहाँ जन्म लिया है। आप तो आत्मा हैं, शाश्वत हैं। और जो आस्था है, वो समय के साथ बदल सकती है। इस जन्म में भी बदल सकती है, अगले जन्म में भी बदल सकती है। पर आप तो वही हैं। आप तो नहीं बदल रहे हैं। सिर्फ विश्वास बदल रहा है। बुनियाद वही है, ढाँचा बदलता है। तो विश्वास स्थायी नहीं है, स्थिर और नित्य नहीं है। समय के साथ बदल सकता है। इसीलिए हमारे सभी धर्म अस्थाई और अल्पकालिक हैं।

हमें उस धर्म को जानना है, उस धर्म की ओर चलना है, जो हमारा खुद का है, हमारा प्राकृतिक स्वभाव है, हमेशा से है, सनातन है, शाश्वत है। सनातन धर्म वह है जिसे बदला नहीं जा सकता, जो नित्य और शाश्वत है – हमारे मूल संस्कार। हमारे मूल संस्कार ही हमारी आत्मा के असली गुण हैं। हमारी मूल प्रकृति हैं जिसे हमें पाना है, और यही हमारा धर्म है। इसी मंजिल को पाने की ओर अग्रसर होना ही हमारा वास्तविक धर्म है, और सभी धर्मों की वास्तविक उपयुक्तता।

हम आत्माओं के मौलिक गुण या मूल प्रकृति क्या है?

सात प्रकार की मूल प्रकृतियाँ हैं, जो आत्मा का हिस्सा हैं। जो आपके स्वाभाविक गुण हैं, जो आपके पास हैं, आपके अंदर हैं। लेकिन पूरी अवस्था में नहीं हैं। और इसीलिए ये बेचैनी, ये कश्म-कश और बार-बार जन्म।

कौन सी हैं वो सात प्रकृतियाँ?

पहली है, शांति। पूरे जीवन में हम लोग जिसकी सबसे ज्यादा कामना करते हैं, जिसके पीछे सबसे ज्यादा भागते हैं, वह शांति है। आपने कितनी बार सुना होगा कि मुझे शांति चाहिए, मुझे शांति दे दो। क्या आपने कभी सोचा कि जो चीज़ आप बाहर से मांग रहे हैं, जो बाहर से पाने की कोशिश कर रहे हैं, वह आपका मूल स्वभाव है। आपकी मूल प्रकृति है। उसे पहचानना है। और इसके लिए अध्यात्म का रास्ता ही एक मात्र रास्ता है। और जिस दिन आप अपनी सात प्रकृतियों को पा लेंगे, पूर्ण रुप से, उस दिन आप सम्पूर्ण हो जायेंगे – उस दिन आप उस संपूर्ण का हिस्सा बन जायेंगे।

दूसरी मूल प्रकृति खुशी हैं, हैप्पीनैस। हमारा मूल स्वभाव है ये, हमारी मूल प्रकृति है ये, हमारा खुद का गुण है ये। द स्टेट आॅफ एवर हैप्पीनैस। हमे उसे प्राप्त करना हैं, फाॅर आॅलवेस, हमेशा के लिए। आपने देखा होगा बीस दिन का, पन्द्रह दिन का, एक महीने का बच्चा। बिस्तर पर लेटा पड़ा है और मुस्कुरा रहा है। कोई उससे बात नहीं कर रहा, कोई उसे कुछ दिखा नहीं रहा, खिला नहीं रहा। अकेला पड़ा ही खुद मुस्कुरा रहा है। वो हैप्पीनैस जो आपकी अपनी है, उसे पहचानना है। उसे अपने स्वभाव में लाना है। ऐसे कि वो स्थाई हो जाये। आपकी दूसरी मूल प्रकृति – खुशी।

और तीसरी मूल प्रकृति शक्ति है, पाॅवर। आप शक्तिशाली हैं, क्योंकि आत्मा शक्तिशाली हैं। मैं इस शरीर की या भौतिक संसार की बात नहीं कर रहा हूँ, आपकी बात कर रहा हूँ। आप आत्मा रुप में परमात्मा का अंश हैं। अतः आप सर्वशक्तिमान हैं। अगर आप दृढ़ संकल्प करें तो आप कुछ भी पा सकते हैं। और पाने से मेरा मतलब भौतिक संसार की वस्तुओं से नहीं बल्कि आपके अपने मूल गुणों को पाने से हैं।

और चैथा ज्ञान, नाॅलेज। आत्मा का स्वाभाविक गुण, आत्मा की स्वाभाविक प्रकृति है ज्ञान। ज्ञान से मेरा मतलब इससे नहीं कि आपको गणित आता है, विज्ञान आती है, भाषाएं आती हैं। ज्ञान से मेरा मतलब आध्यात्मिक ज्ञान से है। वो एक एकीकरण का भाव, वो एकात्मक दृष्टि जो पूरे ब्रह्माण्ड को एक देखे। वो एकीकरण, वो एकात्मक दृष्टि का भाव जिसमें आप खुद भी सम्मिलित हों। जब आप खुद का भी एहसास करें तो आपको आप भी अलग नजर नहीं आयें। वो ज्ञान – आत्मा-परमात्मा का ज्ञान। स्वयं और ब्रहम् का ज्ञान।

और पाँचवा – प्रेम। जिसे दूसरों से पाने के लिए हम अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। और जो कि आपका, आत्मा का, प्राकृतिक स्वभाव है, प्राकृतिक गुण है। जो चीज आपके पास है। जिस चीज से आप लदालद हैं, भरे हुए हैं। वो चीज बाहर से मांगने का या बाहर से प्राप्ति करने का क्या औचित्य है? कोई औचित्य नहीं है। तो इन गुणों को पहचानना ही सही धर्म है। क्योंकि अपने ही स्वभाव को पहचानना और पाना ही हमारा सनातन धर्म है, इटरनल रिलीजन है – वो ही एक मात्र उद्देश्य है इस जीवन का।

और हमारी छठी प्रकृति आनन्द है – ब्लिस। वो आनन्दमयी स्थिति जिसमें सिर्फ आप और ब्रहम् हैं, आप स्वयं ही ब्रहम हैं। जहाँ कोई दुविधा, कोई संकट, कोई बेचैनी, कुछ भी नहीं है।

और आत्मा का सातवां स्वभाव, सातवीं प्रकृति, पवित्रता है। सब कुछ अपवित्र हो सकता है इस भौतिक संसार में। अगर कुछ पवित्र है, तो वो आत्मा है। हमारा यह प्राकृतिक स्वभाव है। प्राकृतिक गुण है।

इन सातों प्राकृतिक स्वभावों को, गुणों को पूर्ण रुपेण पा लेना ही सनातन धर्म है। ये ही इटरनल रिलीजन है। अपने प्राकृतिक स्वभाव की प्राप्ति की तरफ बढ़ना ही धर्म है। वस्तुतः विभिन्न धर्मों का रास्ता भी इसी तरफ जाना चाहिए कि आप अपने प्राकृतिक स्वभाव को पा लें। और जिस दिन आप अपने प्राकृतिक स्वभाव को पूर्ण रुप से पा लेंगे, उसी दिन आप आप नहीं रहेंगे, बल्कि परमात्मा तुल्य हो जायेंगे। ईश्वर समान हो जायेंगे।

हमारी मूल प्रकृतियाँ जो कि हमारे मूल स्वभाव हैं, मौलिक संस्कार हैं, मूलभूत गुण हैं, प्रारंभिक छाप हैं, उन्हें हमसे दूर नहीं किया जा सकता। आपको सिर्फ खोजना है, आपको सिर्फ समझना है, जानना है, उसको पाना है। पूर्ण रुप से कि और कुछ भी ना रहे। सिर्फ शांति, खुशी, शक्ति, ज्ञान, प्रेम, आनन्द और पवित्रता। हमारी मूल प्रकृति को हमसे दूर नहीं किया जा सकता। जैसे गर्मी और प्रकाश को आग से दूर नहीं किया जा सकता। जैसे तरलता को तरल पदार्थों से दूर नहीं किया जा सकता। उसी तरह हमारे मूल गुणों को, हमारे मूल स्वभाव को, हमारे सनातन धर्म को हमसे अलग नहीं किया जा सकता। हमारे मूल संस्कार हमारे निरंतर साथी हैं। शाश्वत हैं और इसीलिये ये शाश्वत गुण ही हमारा सनातन धर्म है। किसी धर्म में आस्था या धर्म परिवर्तन से हमारा सनातन धर्म नहीं बदल सकता।

आप सभी से प्रार्थना है कि आप अपने आध्यात्मिक मार्ग पर इसकी शुरुआत करें। आप किसी भी धर्म के जरिये कर सकते हैं, क्योंकि यह जरुरी नहीं है। पर ये खोज जरुरी है। क्योंकि ये ही एक उद्देश्य मात्र है इस जीवन में आने का – अपने सनातन धर्म को पाना। हमारे विश्वास समाज द्वारा निर्धारित होते हैं और इसलिए मौलिक नहीं होते, शुद्ध नहीं होते।

मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।

ऊँ तत् सत्!

…परम द्विज