मुक्ति और जीवन मुक्ति के नौ चरण

(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)

ऊँ तत् सत्; दाता याद है!

हम जीवन में कल्पना करते हैं कि कैसे जीवन मुक्ति हो। जिस जीवन के लिए आप हर पल, प्रतिपल, कुछ न कुछ संजोने की कामना करते हैं, कुछ न कुछ संजोने के कर्म करते हैं, उस जीवन से मुक्ति कैसे संभव है? हालाँकि यह कल्पना या इच्छा बुरी नहीं है, क्योंकि यही तो उद्वेश्य है इस जीवन में आने का। एक जीव एक आत्मा जो कि अनश्वर है, शाश्वत है, वो भौतिक संसार में जो कि नश्वर है उसमें परवेश करती है, देह रुप में, एक ही उद्वेश्य के साथ कि कैसे जीवन मुक्ति हो, कैसे मोक्ष मिले। और फिर हमारे समाज के सामाजिक अनुबंधन, ट्रेनिंग, के कारण हम अपने ही उद्वेश्य से दूर होते चले जाते हैं।

हमारे जीवन का, हमारा इस भौतिक संसार में जन्म लेने का, एक मात्र उद्वेश्य जीवन मुक्ति प्राप्त करना है। आप इसे कुछ भी नाम दें – एनलाईटनमैंटए मोक्ष, दाता से मिलना या पूरा का पूरा दाता के गुण स्वरुप हो जाना। पर यह कैसे संभव है? जब तक आप सच्चे अर्थों में मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक जीवन मुक्ति की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं? और जिस दिन, जिस समय, जिस क्षण आपको मुक्ति मिल जाएगी, जीवन मुक्ति का रास्ता खुद-ब-खुद खुल जाएगा।

तो मुक्ति कैसे मिले?

मैं आपको नौ चरणों में ये बताने की कोशिश करुँगा कि आप मुक्ति कैसे पा सकते हैं। वस्तुतः नौ चरण भी नहीं है। चरण एक ही है। क्योंकि पहला चरण दूसरे चरण को, दूसरा तीसरे को, और फिर इसी प्रकार आखिरी नौंवा चरण खुद-ब-खुद होता चला जाएगा।

तो पहला चरण क्या है?

पहला चरण है निस्वार्थ कर्म – अकर्म। जो कर्म न हो। आप जो आप कर रहे हैं, करिये, बिल्कुल वैसा ही करिये। लेकिन सिर्फ समझ, होश, बोध  या चेतना   बदल लिजिए। शारीरिक चेतना से हटकर आत्मा की चेतना के साथ वो ही कर्म करिये। परमात्मा की याद में अकर्म करिये जिसमें किसी भी प्रकार के स्वार्थ की, किसी भी प्रकार के फल की इच्छा ना हो। आप कर्म कर रहे हैं क्योंकि आप जीवन में है। आपको कर्म करने हैं। सुबह से शाम कर्म करने हैं। आप करिये और बिल्कुल वैसा ही करिये जैसा करते हैं। सिर्फ अपनी सोच बदल लिजिए। अकर्म करिए। बिना किसी फल की अकांक्षा के। निस्वार्थ कार्य, निष्काम कर्म, व्यक्तिगत लाभ के लिए किए गए संस्कारों और कर्तव्यों को अस्वीकार करना है।

और व्यक्तिगत लाभ के लिए किये गये कार्यों में दोनों शामिल हैं – काम्य कर्म भी और निषिद्ध या वर्जित कर्म भी। काम्य कर्म वे अच्छे कर्म हैं जो करने योग्य हैं। और निषिद्ध कर्म वे कर्म हैं जो आपको नहीं करने चाहिएँ। वे सब कर्म वर्जित कर्म हैं जो आत्मा को, आप को, अस्वीकार्य हैं – चोरी करना, झूठ बोलना, किसी को धोखा देना, किसी की बुराई करना इत्यादि। तो व्यक्तिगत लाभ के लिए किए गए सभी प्रकार के संस्कारों और कर्तव्यों को अस्वीकार करना ही निष्काम कर्म है। वो अकर्म है। बस यही पहला चरण है।

नौ चरणों में मुक्ति का रास्ता और पहला चरण सबसे मुशिकल। लेकिन संभव है। प्रयत्न कीजिए। कुछ भी करिये, बस उस बदली हुई चेतना  के साथ करिये, दाता की याद में करिये। बस अकर्म करिए, निष्काम कर्म करिये। तो आपको अहसास होगा दूसरा Step दूसरा चरण अपने आप सिद्ध होगा। स्वयं फलीभूत होगा।

और वो दूसरा चरण क्या है?

दूसरा चरण है मन से पापों का नाश होना। जैसे-जैसे आप अकर्म करने का अभ्यास करेंगे, आप देखेंगे कि मन से पाप स्वयं ही नष्ट होते जा रहे हंै। और जैसे-जैसे यह अनुभव बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे ही आपको स्थायी और अस्थायी के बीच में एक दृढ़ भेदभाव पैदा होना महसूस होने लगेगा। यह भाव बहुत सुंदर लगेगा और निरंतर सुदृढ़ होता चला जाएगा। जैसे-जैसे मन से पाप निकेंलेगे, जैसे-जैसे मन पापों से मुक्त होगा, वैसे-वैसे यह भाव मजबूत होता चला जाएगा – स्थायी और अस्थायी के बीच का भेद। क्या स्थायी है और क्या अस्थाई – और ये भाव जरुरी है। मुक्ति के रास्ते में इस भाव का बहुत महत्व है। इस बात की समझ होना, इस बात का ज्ञान होना कि क्या स्थाई है और क्या अस्थाई। और ये तभी संभव है जब हम प्रथम चरण में पूर्ण हो जाऐं। समय लगेगा। पर असंभव नहीं।

और फिर तीसरा चरण। तीसरे चरण में, धीरे-धीरे, मन और अंगों के पूर्ण नियंत्रण या वशीकरण का पालन शुरु होगा। इस भौतिक संसार की चीजों से वैराग्य शुरु होगा जो आपको इन सब चीजों के त्याग की ओर ले जाएगा। जैसे ही दूसरा चरण सिद्ध होगा, जैसे ही स्थायी और अस्थायी के बीच का भेद साफ होगा, वैसे-वैसे ही मन वैराग्य की तरफ जायेगा। वैसे-वैसे ही अंगों के पूर्ण नियंत्रण का पालन शुरु होगा। और मन का इस तरफ जाना आत्मा की तरफ झुकना है, क्योंकि सामाजिक अनुबन्धनों के कारण हमारी आध्यात्मिक उन्नति में सबसे बड़ी अड़चन मन ही है। आप अपने जीवन के एक मात्र उद्वेश्य, मुक्ति और जीवन मुक्ति के लक्ष्य की तरफ नहीं बढ़ पा रहे हैं, और उसका सबसे बड़ा कारण मन है। क्योंकि आत्मा बोलती है, सुनाई देती है, लेकिन हम आत्मा की नहीं सुनते, मन की सुनते हैं। पर जब मन परिवर्तित होगा तो यही मन हमारी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक भी होगा। तो तीसरा चरण वैराग्य की ओर, चीजों के त्याग की ओर, अंगों के पूर्ण नियंत्रण की ओर। ये बहुत महत्वपूर्ण चरण है। लेकिन आपको कुछ करना नहीं है, आपको हर संभव प्रयास द्वारा सिर्फ प्रथम चरण पूर्णरुपेण सिद्ध करना है। दूसरा चरण खुद आएगा और फिर तीसरा भी खुद आएगा।

और फिर चैथा चरण – जैसे-जैसे वैराग्य और अंगों का वशीकरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे आपकी मुक्ति की लालसा बढ़ेगी। और ये चैथा चरण, मुक्ति के द्वार पर आपकी दस्तक होगी – मुक्ति की लालसा। उस मुक्ति की तरफ जिसे आपने अपने प्रथम चरण से शुरु किया था। यह चैथा चरण आपकी मुक्ति की लालसा को बढ़ाएगा। आपको मुक्ति की ओर लेकर जाएगा। आपने जीवन मुक्ति पाने के लिए पहले मुक्ति पाने की ओर कदम बढ़ाया था। और यह चैथा चरण इतना मजबूत होगा कि अब शायद आप भी खुद को ना रोक पाऐंगे। इस चैथे चरण में, मन, बुद्धि और हृदय, तीनों का अद्भुत समन्वय सिद्ध होगा, जो आपको आपकी अगली मंजिल की ओर ले जाने का मार्ग सिद्ध करेगा। 

और फिर पाँचवा चरण – शिक्षक की तलाश। इस चरण में आप एक शिक्षक की तलाश शुरु करेंगे। आप ने मुक्ति की लालसा इतनी सुदृढ़ हो चुकी होगी कि आपकी एक शिक्षक की तलाश शुरु होगी। आप किसी गुरु की खोज में निकलोगे। वो तलाश कि आप किसी का अनुसरण कर सकें जो आपको आपके अगले पड़ाव तक ले कर जाये। यह सब स्वतः और सहज रुप से होगा। आप एक शिक्षक के रुप में कैसे और किसे ढूंढ पाऐंगे, यह आपकी समझ, परिस्थिति और अब तक के सामाजिक अनुबंधनों की जकड़ पर निर्भर करेगा। और इसके बाद जब आप वो शिक्षक पा लेंगे तो आपको उससे  श्रवण की इच्छा होगी। उसको सुनने की इच्छा होगी। उससे सीखने की इच्छा होगी। जानने की इच्छा होगी।

छठा चरण अनुसरण करवाता है। शिक्षक के श्रवण का अनुसरण।

और सातवाँ चरण है मैडिटेशन – गहन ध्यान। शिक्षक से सुनने और समझने के बाद आपका मन आत्मा की सुनने लगेगा, अपनी नहीं। आपका मन आपके इस जन्म के और पिछले जन्मों के संस्कारों के प्रभाव से मुक्त, इस सातवें चरण में आत्मा की आवाज सुनता है और इसलिए मजबूर है कि इस चरण में आपको गहन ध्यान की तरफ आकर्षित करे। आपको गहन ध्यान का अभ्यास करने के लिए मजबूर करे। कृप्या ध्यान रखें कि मैं समाधि की बात नहीं कर रहा हूँ। लेकिन ध्यान में यह समझ होना बहुत जरुरी है कि ध्यान क्या है, ध्यान कैसे करें, क्यों करें, किसलिए करें, क्या करें? पर छठा चरण खत्म होने के बाद, कम से कम एक लालसा, एक इच्छा, के लिए आप मजबूर हो जांएगे और वो है गहन ध्यान का अभ्यास। गहन ध्यान की तरफ झुकाव। और जैसे ही आप साँतवें चरण को पाएंगे, जैसे ही आप ध्यान की तरफ आकर्षित होंगे, उसका अभ्यास शुरु करेंगे, वैसे ही आठवें चरण का जन्म शुरु हो जाएगा। बस इतना ध्यान रखिएगा कि ध्यान की प्रक्रिया सही होनी चाहिए।

आठवें चरण में मन सभी दोषों से मुक्त हो जाता है। जब मन सभी दोषों से मुक्त हो जाता है तो वास्तविकता का ज्ञान उत्पन्न होता है। जो ज्ञान स्थायी और अस्थायी के भेद की शुरुआत से हुआ था, वो आठवें चरण में वास्तविकता के ज्ञान तक पहुँच जाता है। वास्तविकता का ज्ञान यानि चीजों और तथ्यों की स्पष्टता। जब मन सभी दोषों से मुक्त हो जाता है तो एकात्मक दृष्टि का उदय होता है।   एकात्मक दृष्टि यानि ब्रहम और स्वयं का तत्काल ज्ञान। ऐसी एकात्मक दृष्टि से दाता व स्वयं में अद्वैत का भाव जन्म लेता है। अद्वैत यानि ‘दो नहीं’। पर अद्वैत का मतलब ‘एक’ भी नहीं है। ऐसी अद्वैत दृष्टि जिसमें आप खुद को पूर्ण रुप से ब्रहम में लीन पाते हैं। सर्वोच्च मुक्ति – जीवन मुक्ति के मुकाम तक पहुँचने के लिए यह आठवां चरण महत्वपूर्ण है।

अब नौवंा और आखिरी चरण। ब्रहम और स्वयं के ज्ञान की शक्ति से वर्तमान और पिछले जन्मों में किए गए कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं। कर्मों के प्रभाव लम्बे समय तक हो सकते हैं, पर कर्मों के प्रभाव शाश्वत नहीं हैं। आपके पिछले जन्मों के कर्मों के और इस जन्म के कर्मोें के प्रभाव लम्बे अरसे, यानि आने वाले जन्मों  तक भी हो सकते हैं, पर क्योंकि इन प्रभावों को ज्ञान शक्ति द्वारा मिटाया जा सकता है, इसलिए ये शाश्वत नहीं हैं। ज्ञान की शक्ति से पिछले जन्मों के और ज्ञान प्राप्ति के समय तक इस जन्म के कर्मों के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं। और ज्ञान की प्राप्ति के बाद, स्वयं और ब्रहम के प्रति एकात्मक दृष्टि प्राप्त होने के बाद, आप जो भी कर्म करते हैं, उनका फल नहीं मिलता, उनका प्रभाव नहीं होता। हालाँकि, उन सभी पिछले कर्मों के प्रभाव जो ज्ञान की प्राप्ति के समय होना शुरु हो चुके होते हैं, उनको नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन उनको मिटाया जा सकता है। और तभी ये नौंवा चरण महत्वपूर्ण है।

वो सब कर्म जो आपने अभी तक किए हैं, ज्ञान की प्राप्ति के समय तक, पिछले जन्मों में या इस जन्म में, जिनके प्रभाव शुरु हो चुके हैं, उनको भी मिटाया जा सकता है। और उन्हें मिटाने का सिर्फ एक ही तरीका है, और वो है संयम। संयम सभी विषयों में सभी अनुशासनों में सबसे कठोर और महत्वपूर्ण अनुशासन है, सबसे मजबूत अनुशासन है, जिसके माध्यम से शुरु हो चुके कर्मों के प्रभावों को भी समाप्त किया जा सकता है।

और संयम क्या है? संयम एक त्रय है, तीन स्तम्भों पर खड़ा है। बहुत महत्वपूर्ण है। यह धारणा, ध्यान और समाधि का एक त्रय है और ये तीनों स्तम्भ संयम के अनुशासन में महत्वपूर्ण हैं।

धारणा का क्या अर्थ है? धारण का अर्थ है – एकाग्रता, दृढ़ संकल्प और केन्द्रिता। जब तक हम इस पहले स्तम्भ में निपुण नहीं हो जाते, तब तक दूसरे स्तम्भ को पाना संभव नहीं है। दूसरा स्तम्भ क्या है? दूसरा स्तम्भ ध्यान है। एकाग्रता, दृढ़ संकल्प और केन्द्रिता के अभाव में यह गहन ध्यान संभव ही नहीं है जिसके बिना हम तीसरे स्तम्भ समाधि तक नहीं पहुँच सकते। जब ध्यान में आप लीन होना शुरु हो जाते हैं, तो एक अवस्था आती है जो कि संयम का तीसरा स्तम्भ है – समाधि। समाधि यानि अवशोषण। जहाँ आप स्वयं को भूलकर कहीं ओर लीन हो जाते हैं और आपको अपने शरीर तक का भी आभास नहीं रहता। तो इन तीनों स्तम्भों पर टिका है संयम। इसलिए संयम सबसे कठोर नियम है, सबसे कठोर अनुशासन है। लेकिन महत्वपूर्ण है।

नौंवे चरण में आपको विशेष रुप से संयम का पालन करना है क्योंकि इस चरण में आप अपने सभी पूर्व जन्मों के कर्मों के प्रभावों को नष्ट करने के बाद भी डगमगा सकते हैं। क्योंकि यह वो समय है जब आपको उन कर्मों के प्रभावों को भी समाप्त करना है जो ज्ञान प्राप्ति के समय शुरु हो चुके हैं। अगर इस समय आपका मन डगमगा रहा है तो समझिये कि कुछ कर्म अभी बाकी हैं जो नष्ट नहीं हुए है और जिनके प्रभाव शुरु हो चुके हैं। इस बात का ध्यान होना जरुरी है, और उस समय आपको सिर्फ संयम बरतना है।

तो ये नौ चरण आपकी मुक्ति और जीवन मुक्ति के लिए। आपकी सबसे बड़ी इच्छा, मोक्ष की, इस देह में दोबारा न आने की, इस देह की तकलीफों को दोबारा न झेलने की, दाता में पूर्ण रुप से समाहित होने की, इस ब्रह्माण्ड में उसी का रुप बन जाने की। आप मुक्ति लीजिए जीवन मुक्ति स्वयं चल कर आएगी। आप खुद की सुनिये, आत्मा की सुनिये – मुक्ति के द्वार आपसे दूर नहीं हैं।

मेरी बहुत सारी शुभ कामनायें!

ऊँ तत् सत्!

…परम द्विज