पूर्ण आध्यात्मिक प्राप्ति के लिए, बिना किसी देहभान या शारीरिक चेतना के जीवन पर्यन्त आत्म चेतना के अभ्यास की आवश्यकता है। …परम द्विज
पद, नाम, संबंध, पेशा, आदि सहित सभी पदनाम व्यक्त रुप में हमारे भौतिक शरीर से जुड़े हैं, जबकि आत्मा और दाता दोनो अव्यक्त हैं। अव्यक्त से अव्यक्त का मिलन बिना देहभान के केवल आत्मिक चेतना द्वारा ही संभव है। …परम द्विज
वृक्ष रुप में हमारे भौतिक जगत की जड़ें ऊपर की ओर और शाखाएं नीचे की ओर हैं, जो कि आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिंब है। छाया में कोई पदार्थ नहीं है, लेकिन कम से कम यह जानने का अवसर जरुर है कि पदार्थ और वास्तविकता मौजूद हैं। …परम द्विज
सभी प्राणियों में सर्वोच्च चेतना स्वरुप हम लघु ईश्वर है क्योंकि हमारे पास सूक्ष्म मात्रा में दाता के सभी गुण हैं और उस जैसा होने का सामथ्र्य। …परम द्विज
हम अपने शरीर से नहीं अपितु अपने दिमाग से कार्य करते हैं। यदि मन दाता से जुड़ा हुआ है, तो हमारे शरीर द्वारा किये गये कार्य वही रहते हैं, कम से कम सतही तौर पर ही सही। लेकिन चेतना बदल जाने के कारण उन कर्मों के प्रभाव बदल जाते हैं। …परम द्विज
‘संयम’ धारणा (एकाग्रता, दृढ़ संकल्प और केन्द्रिता), ध्यान और समाधि का त्रय रुपी सबसे कठोर आध्यात्मिक अनुशासन है जिसके माध्यम से सभी कर्मों के प्रभावों को नष्ट किया जा सकता है। …परम द्विज
भौतिक संसार का नियम यही है कि यह अस्थाई है – अस्तित्व में आता है, कुछ उप-उत्पाद पैदा करता है और गायब हो जाता है – जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है लेकिन इस दुनिया से परे एक और प्रकृति है जो कि शाश्वत और सनातन है। …परम द्विज
सनातन का अर्थ है कि जिसका कोई आदि और अंत नहीं है और जो निरंतर है। अतएव, सनातन में किसी भी साम्प्रदायिक प्रक्रिया का उल्लेख असंभव है। भौतिक सृष्टि में हमारे अस्तित्व का उद्देश्य हमारे सनातन व्यवसाय अर्थात् सनातन धर्म को पुनर्जीवित करना है। …परम द्विज