स्वरूप सिद्धि कैसे पाएं?

(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)

ऊँ तत् सत् ; ‘दाता’ याद है!

कुछ समय पहले बात हुई कि ब्रह्म क्या है? क्या उसे महसूस किया जा सकता है? ब्रह्म की चर्चा की गयी की ब्रह्म क्या है? क्या उसे पाया जा सकता है? क्या उसका अहसास किया जा सकता है?शायद नहीं। बहुत लोगों के लिए शायद नहीं।

लेकिन अगर, हम थोड़ा सा, चीजों की वास्तविकता को, तथ्यों को, अपने आपको खुद से दूर करके, उनको समझना शुरू करें कि ब्रह्म क्या है?

 तो हम ही तो ब्रह्म हैं।

ये पूरी सृष्टि, ये पूरी कायनात, ये सब कुछ ब्रह्म ही तो है।आप खुद को कैसे एक ‘इंडिविजुअल’, एक जुदा, अलग इकाई कैसे महसूस कर  सकते हैं?

कौन सी ऐसी शक्ति है, कौन सी ऐसी ऊर्जा है, कौन सा ऐसा अस्तित्व है, जो आप में बह रहा है? आप उसे कुछ भी नाम दें, कुछ भी नाम दें। ये ऊर्जा नहीं है क्या?

ये जो पानी बह रहा है, ये किसकी ऊर्जा से बह रहा है? क्यों बह रहा है? इसको कहाँ जाना है?

आप गौर कीजिए, यह एक नहर है। मैं इसकी एक बूँद से पूछूं कि तू कौन है? तो वो क्या जवाब देगी? वो यही कहेगी कि मैं नहर हूँ। और अगर वो बूँद ये कहे कि मैं बूँद हूँ, तब गलती नहर की तो नहीं है?

वास्तविकता यही है। सच्चाई यही है। जो एनर्जी, जो ऊर्जा, जो क्षमता, जो ताकत नहर में है, वो एक बूँद में नहीं हो सकती। और हम सब उस ऊर्जा का स्वरूप ही है, वही सब क्षमता, वही सब शक्ति, हम  अपने में लिए हुए हैं। बस हमें अपने स्वरूप की सिद्धि चाहिए।

हम सबका, मेरा, आपका, एक स्वरूप है। हम सब की परमात्मा से, ‘दाता’ से, खुदा से, अल्लाह से, ईश्वर से, एक तार जुड़ी हुई है। एक नाता है। और वो नाता, वो तार अति गंभीर है, वो नाता, वो तार ऐसी है कि आपको, आप चाहें तो भी, उससे जुदा नहीं होने देगी।

लेकिन, हमें उस तार के स्वरूप को, हमें परमात्मा से अपने उस रिश्ते को, पहचानना है कि हमारा स्वरूप क्या है? हम क्या हैं? हम किस लिए हैं? इस धरा पर, इस पृथ्वी पर, हम क्यों हैं?

कोई कारण तो होगा। कुछ भी बिना कारण नहीं होता।

उस तार को, उस स्वरूप को, उस परमा-आत्मा के साथ अपने उस रिश्ते को, ‘दाता’ के साथ अपने उस सम्बन्ध को समझने को, उस रिश्ते को पहचानने को, उस स्वरूप को जानने को, स्वरूप सिद्धि कहते हैं। और यही स्वरूप सिद्धि है।

हमें अपनी खुद की स्वरूप सिद्धि चाहिए। हमें अपने स्वरूप को पहचानना है। हमें उस, उस ‘दाता’ के साथ, उस परमात्मा के साथ, उस ईश्वर के साथ, उस खुदा के साथ, उस अल्लाह के साथ, आप कुछ भी नाम लो क्या फर्क पड़ता है, अपने सम्बन्ध को पहचानना है।

ऊर्जा एक है, शक्ति एक है। परमात्मा एक है।

मुझे, लोग अलग अलग नामों से पुकार सकते हैं। मेरी मां ‘मेरे नाम’ से, मेरी बहनें ‘भैया’ बोलकर, मेरे यार-दोस्त मुझे ‘दोस्त’ बोलकर, मेरा बेटा ‘पिता’ बोलकर। तो क्या उससे, मैं कई अलग-अलग इकाईयें हो गया?

मेरा जो स्वरूप है, वो एक है। मेरी जो प्रकृति है, मेरा जो स्वभाव है, वो एक है। मैं एक ही व्यक्ति हूँ। मेरा व्यक्तित्व विभिन्न रूपों में प्रदर्शित हो सकता है। मां के प्रति, पिता के प्रति किसी और भावना से, बेटे के प्रति किसी और भावना से, यार दोस्तों के प्रति किसी और भावना से। पर इससे मैं दस व्यक्ति नहीं बन जाता। मेरा स्वभाव, मेरी प्रकृति, मेरी ‘इन्डिविजूऐलिटी’, नहीं बदल सकती।

इसी तरह से परमात्मा, ‘दाता’, ‘अल्लाह’, किसी के लिए भी अलग-अलग नहीं हो सकते।

आप का जो स्वरूप है, आप उस स्वरूप सिद्धी को प्राप्त कीजिए। आप अपने स्वरूप को, अपने रिश्ते को, ‘दाता’ के साथ समझिए। और जब आप वो स्वरूप सिद्धि प्राप्त कर जाएंगे – उसी स्वरूप के प्रति, जो ‘दाता’ का आपके साथ संबंध है, आपको उसी अनुसार, उसी नियम के अनुसार, आपको सिद्धि प्राप्त होगी।

आप ‘दाता’ के साथ एक रिश्ता जोड़िए, आप दो रिश्ते जोड़िए, आप दस रिश्ते जोड़िए। मीरा ने प्रेम किया। किसी ने समर्पण किया। किसी ने अपना सब कुछ खो दिया। किसी ने उसको जान बुझ के नकार भी दिया। उसको फर्क नहीं पड़ता। आपका अपना रिश्ता, आपका अपना संबंध जो ‘दाता’ के साथ है, आपकी अपनी स्वरूप सिद्धि, आपके लिए और आपकी आध्यात्मिक यात्रा में उन्नति के लिए महत्वपूर्ण है।

आप पूछेंगे, मेरा ‘दाता’ के साथ क्या संबंध है?

बहुत सारे संबंध हैं। लेकिन सबसे मजबूत संबंध कौन सा है? वो मेरा दोस्त है क्योंकि हर समय साथ खड़ा है। मैं उसका प्रेमी हूं, वो मेरा प्रेम है क्योंकि हर समय उसमें डूबा रहता हूँ। वो मेरी मां भी है। वो मेरा बाप भी है। लेकिन, अगर मुझे स्वरूप सिद्धि करनी है, अगर मुझे अपने स्वरूप को जानना है, अगर मुझे उसके साथ अपने सच्चे रिश्ते को पहचानना है, और जैसा मैंने एहसास किया है, जैसा मैंने अनुभव किया है, शायद सबसे, सबसे मजबूत संबंध, अगर मेरा ‘दाता’  के साथ है, तो वो पिता और पुत्र का है। ‘दाता’  मेरा पिता है और मैं पुत्र।

और पुत्र का सिर्फ एक ही लक्ष्य है। पुत्र होने के नाते मेरा एक ही कर्तव्य है, और वो है अपने पिता के कारोबार में सहयोग करना।

और मेरे पिता का कारोबार यह पूरी कायनात है। ‘दाता’ की इस कायनात में, इस सृष्टि में सकारात्मक योगदान करना ही मेरा कर्तव्य है।

आप पूछ सकते हैं कि मां का संबंध क्यों नहीं? ‘दाता’ के साथ, मां का संबंध क्यों नहीं?

वो मेरी मां भी है। लेकिन मुझे उसके साथ पिता का संबंध ही अच्छा लगता है। यही मेरा स्वरूप है। यही मेरा रिश्ता है। यही मेरा ‘दाता’ के साथ संबंध है। यही मेरा स्वरूप है और यही मेरी स्वरूप सिद्धि। वो मां है। क्या पिता मां नहीं होता? पिता तो मां है। मां और पिता में फर्क क्या है? मां प्रेम करती है। पिता ‘केयर’ करता है। पिता ख्याल रखता है। पिता डाँटता है। पिता मारता है। पिता सजा देता है। इसलिए, क्योंकि वो प्रेम करता है। मां भी प्रेम करती है। लेकिन मां का प्रेम, शायद इतना बड़ा नहीं है। या आप ये कहिए कि मां का प्रेम बहुत बड़ा है। इतना बड़ा है कि वो ‘केयर’ से भी चूक जाती है। लेकिन पिता का प्रेम, ‘केयर’ से, धयान से, रक्षा से, उन्नति से नहीं हटता है।

मुझे, उसका स्वरूप पिता स्वरूप लगता है। मुझे उसका स्वरूप, मेरे ‘दाता’ का स्वरूप पिता स्वरूप लगता है।

ऊँ तत् सत् !

…परम द्विज

 

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