अहं ब्रह्मास्मि

(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)

ऊँ तत् सत्; दाता याद है!

मैं और ब्रह्म!

बहुत बार, जब कभी किसी चेतना का स्तर इतना ऊपर उठ जाए कि खुद से ऐसा एहसास होने लगे, ऐसी आवाज आने लगे, कि अहम् ब्रह्मास्मि – मैं ही ब्रह्म हूँ ।

…और वास्तविकता तो यही है।

अगर आप ब्रह्म नहीं हैं, तो आप भ्रम में हैं। अगर आप ब्रह्म नहीं हैं, तो ब्रह्म कौन है? जब से ये विश्व बना है, जब से ये कायनात है, जब से ये पृथ्वी है, जब से मनुष्य की आत्मा ने इस धरती पर जन्म लिया  है, तब से आज तक, एक ही चीज की खोज जारी है, शुरू से आज तक। उस दाता की, परम आत्मा की, परब्रह्म की, ब्रह्म की, उस सुप्रीम कांशियसनेस  की।

हमने बहुत सारी खोजें की हैं। हमने चाँद को पा लिया। हम दूसरे ग्रहों  पर भी पहुंच जाएंगे। पर एक खोज, और शायद कहना चाहिए एक सनातन खोज, एक खोज, एक विचार, एक इच्छा, एक आग, जो मनुष्य के तन में, मनुष्य के मन में, उस समय से लगी है जब से इस धरती पर मनुष्य ने जन्म लिया है। और वह खोज है, परम आत्मा की मंजिल को पाना, दाता से मिलन – मोक्ष!

बहुत सारी चेतनायें हैं। पादप चेतनायें भी हैं। वृक्ष हैं, चेतना है, जीवन है। और फिर जीव हैं, एनिमल्स हैं। पशु, पक्षी और हम मनुष्य। लेकिन, क्योंकि मनुष्य की चेतना, सभी जीवों में, सभी प्राणियों में सर्वोच्च चेतना है। उसका कारण ये है कि मनुष्य की चेतना में वो शक्ति है, वो दर्पण है, मनुष्य की चेतना में वो प्रतिबिंब है, जिसमें दाता की  आकृति प्रकट होती है। उसकी छाया प्रकट होती है।

छाया में कोई पदार्थ नहीं है । लेकिन कम से कम इतना जानने का अवसर जरूर है कि वास्तविकता है। क्योंकि बिना वास्तविकता के छाया भी पैदा नहीं हो सकती। और ये सिर्फ मनुष्य की चेतना ही है जो उसे समझ सकती है।

जन्मों, जन्मों, जन्मों और पता नहीं कितने जन्मों तक हम इसी तरह, इसी सृष्टि में, इसी तरह हर बार आते रहेंगे और सिर्फ एक चीज की खोज करते रहेंगे – जो है, जो सदा से है, हमारे भीतर है।

तो मैं फिर से अपने पिछले प्रश्न पर आता हूँ कि क्या हम ब्रह्म हैं? अहम ब्रह्मास्मि, क्या यह सही है? और जिन लोगों ने भी ये बोला है, और हर धर्म में बोला है, हर विचारधारा में बोला है। अलग अलग भाषाओं में बोला होगा, पर यही बोला है,अहम ब्रह्मास्मि।

जब मनुष्य की चेतना का स्तर वहाँ पहुंच जाए तो फिर कोई और आवाज़ हो ही नहीं सकती। जब वो प्रतिबिंब, उसकी सकारात्मकता, उसकी असलियत, आपकी आँखों के सामने आ जाए, आपकी आँखों के सामने से पर्दा हट जाए, तो फिर आप ये बोलेंगे कि मैं ही ब्रह्म हूँ। फिर आप ये बोलेंगे कि अहम् ब्रह्मास्मि। और फिर आप ये बोलेंगे – अनलहक। सूफी हुए हैं, वहां पहुंचे हैं। हमारी सृष्टि में, एक के बाद एक, और फिर उसके बाद एक, और फिर एक, पता नहीं कितने एक आते रहेंगे, जो सर्वोच्च चेतना को, उस सर्वोच्च परम आत्मा को, उस अल्लाह को, उस खुदा को, उस ईश्वर को, उस दाता को, उसकी एनर्जी को, उसकी ऊर्जाओं को अपने अंदर समाहित करते रहेंगे। और वहां जाकर, वहां बैठकर, इस मनुष्य रूप में फिर से बोलेंगे – अहम् ब्रह्मास्मि!

और हम फिर से उनका पढ़ाया हुआ, फिर से उनका समझाया हुआ, फिर से उनका लिखा हुआ, फिर से उनका बोला हुआ, दोहराते रहेंगे।

अगर वो ब्रह्म हैं, तो आप भी ब्रह्म हैं।

अगर उनकी चेतना मनुष्य रूप में ब्रह्म हो सकती है, तो आप ये भ्रम मत पालना कि आप ब्रह्म नहीं हैं। आप भी वही हैं। क्योंकि सारी ऊर्जाएं, सारी शक्तियां, सारी कायनात, सिर्फ एक ही से पैदा होती हैं। सिर्फ दाता से पैदा होती हैं। उसी की शक्ति, उसी की एनर्जी, उसी की ऊर्जा, हर चीज में है। हर पल में है। हर क्षण में है। इस पत्थर में है, इस वृक्ष में है। आप में भी है, और उतनी ही है, जितनी मुझमें है, और उतनी ही है जिन्होंने बोला है – अहम् ब्रह्मास्मि!

हम बहुत सारी चेतनाओं से प्रेरित हैं। महावीर जैन हैं, गौतम बुद्ध हैं, मोहम्मद हैं, जीसस हैं, श्री राम हैं, कृष्ण हैं, रामानुज हैं, मीरा हैं, और बहुत सारे लोग हैं, जो वहां पहुंचे हैं। विभिन्न रास्तों से पहुंचे हैं। हर किसी का रास्ता अलग हो सकता है। किसी भी रास्ते में बुराई नहीं है, अगर मंजिल तय है। अगर मंजिल दिखाई दे रही है। अगर मंजिल उद्देश्य है तो फिर आप इस रास्ते से जाएं, या उस रास्ते से जाएं, कोई फर्क नहीं पड़ता।

कोई रास्ता, छोटा, बड़ा, लंबा, या कम लंबा हो सकता है। पर इससे क्या फर्क पड़ता है? मेरा रास्ता आपके रास्ते से अच्छा है। इससे क्या फर्क पड़ता है? अगर आपका रास्ता भी आपको अपनी मंजिल तक ले जा सकता है तो आप अपने रास्ते पर चलिए। क्योंकि अगर आप अपने रास्ते पर चलेंगे तो आपके लिए सुगम होगा। वो आपके लिए आसान होगा। आपको कठिनाइयां नहीं झेलनी पड़ेंगी। आपको उबड़ खाबड़ रास्ते पर नहीं चलना पड़ेगा। क्योंकि आपको पता है, क्योंकि आप जानते हैं, क्योंकि आपको उस रास्ते पर चलना आता है।  तो अपने रास्ते को गाली मत दें। दूसरे के रास्ते को गाली मत दें। अगर सभी रास्ते एक ही मंजिल तक जा रहे हैं, तो कोई रास्ता गलत नहीं हो सकता। छोटा बड़ा हो सकता है, पर उससे क्या फर्क पड़ता है?

हमने कितने जन्म लिए होंगे, या हम कितने जन्म लेंगे, या अगर हमने जन्म नहीं भी लिए और हम जन्म नहीं भी लेंगे, तो ये जो जन्म मिला ही है, ये क्या कम है?

श्री कृष्ण की तरह कभी कोई चेतना इतनी सर्वोपरि हो जाए, इतनी ऊपर उठ जाए, वहाँ पहुंच जाए कि परमात्मा बन जाए, और कहे –

।।यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।”

अर्थात, जब-जब धर्म की अवगति होगी, जब-जब धर्म का विनाश होगा, तो धर्म की रक्षा के लिए मैं जन्म लूंगा ।

कौन से धर्म की बात कर रहे हैं कृष्ण? वहां कितने धर्म थे जिनके झगडे थे? कोई धर्म नहीं था। एक ही धर्म था। तो क्या मतलब है जब कृष्ण बात कर रहे हैं कि जब-जब धर्म की व्यवस्था में अपमान होगा, अवगति होगी, तब-तब धर्म की रक्षा के लिए मैं आऊंगा ।

श्री कृष्ण का धर्म से क्या मतलब है?

धर्म से मतलब सिर्फ इतना है कि जीवन जिस ढंग से जीना चाहिए, जो आपको करना चाहिए, जो आत्मा का धर्म है, जो आपका धर्म है, जो सनातन है, जो आपके खुद के मौलिक गुण हैं। प्रेम, शांति, शक्ति, पवित्रता इत्यादि, वो सब गुण जिनके बारे में मैं पहले चर्चा कर चुका हूं।

उस धर्म की बात कृष्ण करते हैं, और कहते हैं कि अगर तुम अपने धर्म से विचलित होंगे, अगर तुम धर्म का विनाश करोगे, अगर तुम धर्म के साथ छेड़छाड़ करोगे, खिलवाड़ करोगे, तो मैं फिर से जन्म लूंगा| । मैं फिर से धरती पर आऊंगा और धर्म की स्थापना करूंगा।

कितनी सर्वोच्च चेतना रही होगी जब श्रीकृष्ण ने यह बोला होगा!

कृष्ण का स्तर, जब अर्जुन को श्रीकृष्ण ने अपने मुख से, शारीरिक रूप में, एक मनुष्य रूप में, रथ के ऊपर खड़ा होकर, यह कहा होगा कि हे अर्जुन, देख सब मुझमें ही आ रहे हैं। सब मुझ में ही समा जाएंगे। सब मुझ में ही खत्म हो जाएंगे। सब मुझ से ही निकलते हैं। ये पृथ्वी, ये आकाश, ये वृक्ष, सब मैं ही हूं। तो तू चिंता मत कर।

आप क्या समझते हैं कि परमात्मा,अल्लाह, दाता, सर्वोच्च चेतना, ब्रह्म, वो पृथ्वी पर आकर बोल रहे हैं? नहीं। कृष्ण की चेतना का स्तर उस समय इतना बड़ा है कि वो खुद ब्रह्मस्वरूप हो गए हैं।  वो वहां विराजमान हो गए हैं। वहां कृष्ण नहीं, वहाँ दाता, वहाँ परमात्मा, वह बोल रहा है कि “मैं ही हूँ”। तुम क्यों परेशान हो ? सब मुझमें ही ख़तम हो जाएगा। सब मुझमें ही मिट जाएगा। सब मुझसे पैदा होता है। तो व्यर्थ चिंता छोड़ो। क्योंकि चिंता करने योग्य है ही नहीं, कुछ भी नहीं । 

तुमने अपनी मर्जी से किया ही क्या है जिंदगी में? कुछ भी तो नहीं किया। जुआ खिलवाया गया। पांडवों को कौरवों के साथ या कौरवों को पांडवों के साथ। जंगल जाना पड़ा। वहां से वापिस आना पड़ा। लड़ाई हुई। तुम क्या कर रहे हो? कुछ भी तो नहीं कर सकते। मैं जो करवाउंगा वही होगा। यह दाता बोल रहे हैं। तुम कितने भी बड़े हो जाओ। तुम युधिष्ठिर हो जाओ, सत्यवादी हो जाओ, तुम दानवीर कर्ण हो जाओ, तुम महावीर अर्जुन हो जाओ, तुम श्रीकृष्ण हो जाओ, तुम श्री राम हो जाओ, तुम कुछ भी हो जाओ। होगा वही जो ‘मैं’ चाहूंगा। ‘मैं’ चाहूंगा का मेरा मतलब है कि जो दाता चाहेगा।

इसलिए व्यर्थ चिंता छोड़ो। परेशान मत हो। अपना कर्म करो। अपना धर्म निभाओ। अपनी आत्मा से लड़ाई मत करो। हर समय, हर पल, हर स्थिति में, सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ का ध्यान रखो कि मैं आत्मा के, मेरे, जो मौलिक गुण हैं, जो मेरे सनातन गुण हैं, जो मेरा धर्म है, जो मेरा स्वभाव है, जो मेरी प्रकृति है, मैं उससे जुदा नहीं होऊंगा ।

अगर प्रेम मेरा स्वभाव है तो मैं सिर्फ प्रेम दे सकता हूँ। अगर पवित्रता मेरा स्वभाव है तो मेरी पवित्रता को कोई बिगाड़ नहीं सकता। अगर मैं शक्ति हूँ तो मुझे कोई विचलित नहीं कर सकता। अगर मैं शांत हूँ तो मुझे कोई अशांत नहीं कर सकता। अगर मैं ज्ञानस्वरूप हूं…

ज्ञान का क्या मतलब है? हम ज्ञान की चर्चा बहुत अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग विचारों में करते हैं। पर ज्ञान का क्या मतलब है?

ज्ञान का मतलब है – द क्लैरिटी अबाउट द थिंग्स एंड द फैक्ट्स। चीजों और तथ्यों की वास्तविकता, उसका आभास, उसकी जानकारी, सिर्फ यही ज्ञान है। और जिस दिन हम इस चीज को समझ लेंगे कि वास्तविक क्या है, तथ्य क्या है, फिर भटकाव अपने आप बंद हो जाएगा।

मैं आनंद स्वरूप हूं। ब्लिस मेरा मौलिक अधिकार है, मेरा मौलिक स्वभाव है, अगर सोसाइटी की, समाज की कंडिशनिंग ना हो, कॉम्पीटीशन ना हो, एक दूसरे से भेदभाव ना हो | जैसे एक बच्चा होता है, एक साल का । आनंद में । भूख लगी है तो रोयेगा, अन्यथा आनंद में है । 

आज शायद इतना ही।

कभी विचार करना । बहुत सारी चेतनायें, जिन्हें हम जानते हैं, जिनका हमें आभास है, जिनसे हमें शिक्षाएं मिली हैं, जैसे मैंने कुछ नाम लिए। और बहुत सारी ऐसी चेतनायें जिन्हें हम नहीं जानते, पर वो भी उस स्वरूप को प्राप्त हो चुकी हैं। आप नहीं जानते, मैं नहीं जानता, पर बहुत सारी चेतनायें वहाँ तक पहुंची हैं।

लेकिन आपको, मुझे, इस चीज की जानकारी, इस चीज का आभास, इस चीज की लगन होना जरूरी है कि सिर्फ और सिर्फ चीजों और तथ्यों की वास्तविकता का ज्ञान ही असली ज्ञान है। क्या असली है? क्या नकली है? क्या स्थाई है? क्या अस्थाई है?

बहुत सारी शुभकामनाएं।

ऊँ तत् सत्!

…परम द्विज

 

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