कर्म और उनके प्रभाव

(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)

ऊँ तत् सत्; दाता याद है!

बहुत बार जिंदगी में ऐसा होता है कि हम बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर ढूँढते हैं। बहुत सारे प्रश्न हमारे जीवन में उठते हैं और हमारे पास उनका कोई उत्तर नहीं होता। कई बार हम खुद से पूछते हैं और कई बार दूसरों से भी। पर वो सब प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। जैसे कि जीवन क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या हम एक घटना मात्र हैं? क्या परमात्मा है? मृत्यु क्या है? क्या दोबारा जन्म होता है? क्या हमने पहले कभी जन्म लिया है? कर्म क्या है? इत्यादि। आज हम कर्म और उनके प्रभावों के बारे में चर्चा करेंगे। जो कि हम सभी के मन में बहुत ज्वल्ति प्रश्न होना चाहिए।

कर्म क्या है? आप कुछ भी करते हैं, वो कर्म है। आप सोचते भी हैं तो वो भी एक कर्म है। कर्म अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है।

और कर्म के बारे में दूसरा प्रश्न कि क्या हम कर्मों के प्रभाव के बोझ को ढोते हैं? उससे ग्रसित होते हैं? क्या हम इस जन्म में और पिछले जन्मों में किए गए उन सभी कर्मों के प्रभावों से ग्रसित होंगे जिनके प्रभाव आने अभी बाकी हैं? क्या हम कर्मों के प्रभावों को समाप्त नहीं कर सकते, उनसे मुक्ति नहीं पा सकते? क्या कर्मों का प्रभाव शाश्वत है? या इसे मिटाया जा सकता है?

कर्मों के प्रभाव को हम तीन विषयों में बांट सकते हैं। एक अच्छाई के गुण वाले कर्म – अच्छाई के प्रभाव में किए गए कर्म। जैसे किसी को शुभ कामनाएँ देना, किसी की मदद करना प्रकृति की सेवा करना, रहे हैं, किसी गरीब की सहायता करना, किसी जरुरतमंद के काम आना, किसी से मीठे बोल बोलना, किसी को सांत्वना देना, किसी का हौसला बढ़ाना आदि सब अच्छाई के गुण वाले और अच्छाई के प्रभाव में किए गए कर्म हैं। साधारण भाषा में कहें तो वो सब कर्म जिससे आपका हृदय विस्तृत हो, आपकी छाती चैड़ी हो, अच्छाई के प्रभाव में किये गये कर्म हैं। वो सब कर्म जो करने के बाद आपको संतुष्टि प्रदान करें, शांति प्रदान करें।

दूसरी तरह के कर्म वे कर्म हैं जो रजोगुण के प्रभाव में किए गए हों। रजोगुण के प्रभाव में किए गए कर्म अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी हो सकते हैं। रजोगुण के प्रभाव में किए गए कर्म यानि ‘द एक्शन्स परफाॅरम्ड अंडर द इनफल्यूैंस आॅफ पैशन’ यानि जनून, जोश, अनुराग, लालसा, शोक, आवेश, उन्माद, मदहोशी या वासना। और जब आप पैशन में कोई काम करते हैं, जब आप रजोगुण में कोई कर्म करते हैं तो पूरी तन्मयता से करते हैं।

आप कुछ भी हो सकते हैं। आप एक अध्यापक हो सकते हैं, एक व्यापारी हो सकते हैं, राजनीतिज्ञ हो सकते हैं, डाॅक्टर हो सकते हैं, साधु-सन्त हो सकते हैं, खिलाड़ी हो सकते हैं, कवि हो सकते हैं, संगीतकार हो सकते हैं, माली हो सकते हैं, बढ़ई हो सकते हैं, कुम्हार हो सकते हैं, श्रोता हो सकते हैं, या कुछ और। लेकिन जब आप पैशन में कोई कर्म करते हैं तो आप वो कर्म पूरी तन्मयता से करेंगे। पैशन में आप कोई भी कर्म सोच-समझकर करते हैं।

जैसे कि आप खिलाड़ी हैं, आप उस खेल में बहुत आगे जाना चाहते हैं, आप बहुत मेहनत करते हैं, अच्छा है, कोई बुराई नहीं है। लेकिन जब आप अपने उस पैशन में, उसे पाने की धुन में, किसी को नुक्सान पहुँचाते हैं तो वो बुरा कर्म बन जाता है। उस पैशन में, उस ऊँचाई को पाने के लिए, कोई गलत काम करते हैं, तो वो गलत है। तो रजोगुण में किए गए कर्म अच्छे भी हो सकते हैं, बुरे भी हो सकते हैं। जैसे कि मान लिजिये कि आप एक विद्यार्थी हैं, आप पढ़ रहे हैं, आप खुब मेहनत कर रहे हैं, आपको परीक्षा में पास होना है, अच्छे अंक लाने हैं। और जब परीक्षा के समय कोई प्रश्न ना आने पर नक्ल मारने की इच्छा होती है या आप नक्ल मारते हैं, तो वो बुरा कर्म हुआ। तो पैशन में किए गए कर्म, रजोगुण में किए गए कर्म, अच्छे प्रभाव वाले भी हो सकते हैं, बुरे प्रभाव वाले भी हो सकते हैं।

और तीसरे प्रभाव वाले कर्म वो कर्म हैं जो अज्ञानता में किये जायंे – ‘एक्शन परफाॅरम्ड अंडर द इनफल्यूैंस आॅफ इग्नोरेंस’। जहाँ आप बिना जाने या बिना समझे अज्ञानता में कर्म करते हैं। और वो कर्म बुरे कर्म होते हैं। अज्ञानता में किए गए कर्म।

तो ये तीन तरह के प्रभावों के अंतर्गत किए गए कर्म – अच्छाई के प्रभाव में किये गए कर्म, रजोगुण के प्रभाव में किये गए कर्म और अज्ञानता के प्रभाव में किये गए कर्म।

तो ये हुआ कि हम कर्म किस प्रकार करते हैं, किन प्रभावों के अंतर्गत करते हैं, किस आधार पर करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे सभी कर्म, किसी भी प्रकार के प्रभाव में किये गये हमारे सभी कर्म, कितनी  प्रकार के होते हैं? अर्थात्, हमारे कर्मों के कितने प्रकार हैं?                                                                                                          

कर्म तीन प्रकार के होते हैं।

पहली प्रकार के कर्म हैं, सुकर्म। सुकर्म का मतलब है वो सब अच्छे कर्म जिनका आपको अच्छा फल मिलेगा।

और दूसरी तरह के कर्म हैं, विकर्म। विकर्म का मतलब है, गलत कर्म। और गलत कर्मों का फल गलत ही होगा। ऐसे कर्मों का प्रभाव जब आपको मिलेगा, तो वह प्रभाव दुःखदायी ही होगा, गलत ही होगा। तो सुकर्म अर्थात् अच्छे कर्म और विकर्म अर्थात् बुरे कर्म।

और तीसरी तरह के कर्म हैं अकर्म। अकर्म का मतलब है वो सब कर्म जो कर्म ही ना हों। ‘नो एक्शन’। अब कोई कर्म अकर्म कैसे हो सकता है? कोई कर्म ऐसा कैसे हो सकता है कि कर्म ही न हो। जब आपके मन में किसी भी कर्म को करने के बाद उसके फल की प्राप्ति की इच्छा ना रह जाये, इच्छा ही ना हो, तो वो अकर्म है। जैसे कि, उदाहरण के तौर पर, आप सड़क पर जा रहे है किसी की जेब से रुमाल नीचे गिर गया। आपने वो रुमाल उठाया, उस व्यक्ति को आवाज दी, और उसका रुमाल वापिस कर दिया। और उस व्यक्ति ने अपना रुमाल लिया, उसे जेब में डाला, और चला गया। आपके मन में ख्याल आया कि अजीब आदमी है, धन्यवाद तक नहीं बोला। तो आपका ये कर्म सुकर्म तो है पर अकर्म नहीं। आपका यह कर्म अकर्म क्यों नही हुआ? क्योंकि आपके मन में उस कर्म के फल की इच्छा की प्राप्ति जागृत हुई। तो वो अकर्म न  बन पाया और केवल सुकर्म हो कर रह गया। अभी कुछ समय पहले की बात है, शायद सात-आठ दिन पहले की बात है कि मैंने देखा कि एक गली में एक व्यक्ति अपनी हाथ-रेहड़ी पर एक बहुत बड़ी मशीन रखे हुए खींच रहा था। और वहाँ पर ऊँचा सा एक गति अवरोध था। थोड़ी ऊँचाई थी तो वह व्यक्ति अपनी रेहड़ी को नहीं खींच पा रहा था। इतने में मैंने देखा कि पीछे से एक मोटर साईकिल आयी, जिसमें दो आदमी बैठे थे। पीछ बैठे आदमी ने मोटर साईकिल रुकवाई, उससे उतरा, रेहड़ी को धक्का देकर अवरोध पार कराया, अपनी मोटर साईकिल पर बैठा और चला गया। उसने रेहड़ी वाले के तरफ देखा भी नहीं। किसी धन्यवाद लेने मात्र तक की भी अपेक्षा नहीं। तो यह अकर्म हो गया। उस मोटर साईकिल सवार व्यक्ति के मन में इस छोटे से कर्म करने के बाद या उसे करने से पहले, किसी भी प्रकार के फल की प्राप्ति की इच्छा नहीं थी। तो यह अकर्म।

सुकर्म करना अच्छा है, बुरा नहीं है, क्योंकि सुकर्मों का प्रभाव या फल भविष्य में अच्छा ही होगा। लेकिन जो कर्म हमें इस जीवन में करना चाहिएं, वो अकर्म हैं। ऐसे कर्म जो कर्म होकर भी कर्म ना हों, जिनका हमारे ऊपर कोई प्रभाव ना पड़े, जिनका भविष्य में कोई फल ना हो। ताकि हम अपने सभी कर्मों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त रहें।

दरअसल धर्म का उद्देश्य और जोर इस बात पर होना चाहिए कि हम अकर्म करें। लेकिन धर्म विचारों में बंटे हैं और संस्थागत हैं। विभिन्न तरह के हंै। तो विभिन्न धर्मों से हमें सुकर्म करने की प्रेरणा तो मिलती हैं, लेकिन अकर्म करने की नहीं। परन्तु अगर हम अकर्म करते हैं तो हम आत्म बोध की तरफ, सेल्फ रियलाईजे़शन की तरफ, एनलाईटनमैंट की तरफ, तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।

अब कर्म के बारे में एक और प्रश्न कि क्या कर्मों के प्रभाव को मिटाया जा सकता है? हमने जो भी अकर्म किये हैं, उनका तो हम पर निश्चित रुप से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। परन्तु क्या हमारे दूसरे कर्मों के प्रभाव, सुकर्म और विकर्म, शाश्वत हैं? हमने जो सुकर्म और विकर्म पहले किये हैं, क्या हम उन कर्मों से बंधे रहेंगे और हमें उन कर्मों के प्रभाव को झेलना पढ़ेगा?

कर्म शाश्वत नहीं हैं। उनके प्रभावों को मिटाया जा सकता है। कैसे? ज्ञान की शक्ति के द्वारा। ज्ञान की शक्ति के द्वारा हम अपने पिछले सारे किये गये कर्मों के प्रभाव को नष्ट कर सकते हैं। ज्ञान का मतलब है, तत्वज्ञान। सिर्फ समझ नहीं। ज्ञान यानी स्वयं और ब्रह्म के प्रति एकात्मक दृष्टि, अद्वैत दृष्टि – चीजों और तथ्यों की स्पष्टता का तत्व से बोध। आत्मबोध यानि एक का बोध, इस सारी सृष्टि में, पूरे ब्रह्माण्ड में, एकीकरण का बोध। तो ज्ञान की शक्ति के द्वारा हम अपने सभी सुकर्मों और विकर्मों के प्रभाव को नष्ट कर सकते हैं। और ज्ञान की प्राप्ति के बाद किये गये कर्मों का हम पर प्रभाव नहीं पड़ता।

लेकिन जिन कर्मों के प्रभाव ज्ञान की शक्ति के समय मिलने शुरु हो चुके हैं, उन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन उन्हें हटाया जा सकता है। उन सभी कर्मों के प्रभाव, जो ज्ञान की शक्ति के समय, आत्म बोध के समय, शुरु हो चुके हैं उन्हें संयम के द्वारा हटाया जा सकता है, समाप्त किया जा सकता है। संयम सभी विषयों में, सभी अनुशासनों में, सबसे कठोर और महत्वपूर्ण अनुशासन है, सबसे मजबूत अनुशासन है, जिसके माध्यम से शुरु हो चुके कर्मों के प्रभावों को भी समाप्त किया जा सकता है।

और संयम क्या है? संयम एक त्रय है, तीन स्तम्भों पर खड़ा है। बहुत महत्वपूर्ण है। यह धारणा, ध्यान और समाधि का एक त्रय है और ये तीनों स्तम्भ संयम के अनुशासन में महत्वपूर्ण हैं।

धारणा का क्या अर्थ है? धारण का अर्थ है – एकाग्रता, दृढ़ संकल्प और केन्द्रिता। जब तक हम इस पहले स्तम्भ में निपुण नहीं हो जाते, तब तक दूसरे स्तम्भ को पाना संभव नहीं है। दूसरा स्तम्भ क्या है? दूसरा स्तम्भ ध्यान है। एकाग्रता, दृढ़ संकल्प और केन्द्रिता के अभाव में यह गहन ध्यान संभव ही नहीं है जिसके बिना हम तीसरे स्तम्भ समाधि तक नहीं पहुँच सकते। जब ध्यान में आप लीन होना शुरु हो जाते हैं, तो एक अवस्था आती है जो कि संयम का तीसरा स्तम्भ है – समाधि। समाधि यानि अवशोषण। जहाँ आप स्वयं को भूलकर कहीं ओर लीन हो जाते हैं और आपको अपने शरीर तक का भी आभास नहीं रहता। तो इन तीनों स्त्म्भों पर टिका है संयम। इसलिए संयम सबसे कठोर नियम है, सबसे कठोर अनुशासन है। लेकिन महत्वपूर्ण है।

अध्यात्म के रास्ते पर, ज्ञान के रास्ते पर कर्मों के प्रभाव को मिटाना बहुत जरुरी है। आप इसी जन्म में एक दूसरा जन्म लें। और अपनी आध्यात्मिकता की पढ़ाई को ओर आगे लेकर जायंे। द्विज बनें। इसी जन्म में दोबारा जन्म लें, लेकिन सोच-समझकर, अपने इस जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये। मोक्ष प्राप्ति के लिये। उस एक मात्र उद्देश्य के लिये, जिसके लिये आप इस पृथ्वी पर जन्म लिये हैं। और जब आप अपने कर्मों के प्रभावों को पूरी तरह से नष्ट कर देंगे, हटा देंगे, तो कोई कारण ही नहीं है कि आप दोबारा जन्म लें।

आपके आध्यात्म के रास्ते पर मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

ऊँ तत् सत्!

…परम द्विज