परमात्मा के साथ सहयोग ही सच्चा आनन्द

(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)

ऊँ तत् सत्; दाता याद है!

कभी-कभी मन में विचार आता है कि इस सृष्टि के पाँच बुनियादी सत्यों में से आत्मा रुप में एक सत्य होते हुए हमारे क्या मौलिक गुण हैं। क्या गुण हैं जो हम लिये ही हुए हैं, सदा से हमारे अपने हैं? क्या हममें दाता की, परमात्मा की कुछ खुबियें हैं, कुछ गुण हैं या फिर सभी गुण हैं।

जब हम सम्पूर्ण चेतना की स्थिति  में होते हैं और एहसास  करते हैं, तो हम पाते हैं कि हममें वही सब गुण होते हैं जो दाता के हैं। क्योंकि हम दाता के ही अंश हैं तो हमारे अन्दर दाता के गुण तो होंगे ही। जैसे पानी की एक बूँद में पानी के गुण तो होंगे ही। आप समुद्र से एक पानी की एक बूँद लीजिए और उसका प्रयोगशाला में विश्लेषण करने पर पाऐंगे कि उसमें समुद्र के कुछ गुण तो होंगे ही। आप एक हवा का एक झोंका लीजिए या हवा का एक कण लीजिए। उस हवा के एक कण में, एक झोंके में, पूरी हवा का कुछ तो रुप होगा। कुछ तो गुण होगा। आप एक मुट्ठी मिट्टी की लीजिए या एक कण मिट्टी का लीजिए। उस छोटे से कण में या आपके हाथ में जो मिट्टी है उसमें पूरी पृथ्वी का कोई तो रुप होगा। कुछ तो गुण होंगे। इसी प्रकार हम दाता के अंश है। तो हमारे अंदर भी दाता के कुछ तो गुण होंगे। और जब हम सम्पूर्ण चेतना की स्थिति में होते हैं तो हममें दाता के सभी गुण होते हैं।

हम एक लघु परमात्मा हैं, लघु दाता हैं। क्योंकि हमारे अंदर दाता के जो गुण हैं, थोड़ी-थोड़ी मात्रा में हैं। छोटे-छोटे अनुपात में हैं। दाता सर्वोच्च नियंत्रक है और हम नियंत्रित। हम ये जानते हुए भी कि हम सर्वोच्च नियंत्रक नहीं हैं, फिर भी हम भौतिक प्रकृति को नियंत्रित करने का हर दिन प्रयास करते हैं। दाता की स्थिति सर्वोच्च चेतना की स्थिति है। दाता भौतिक रुप से दूषित या वातानुकुलित नहीं है, क्योंकि वह जन्म नहीं लेता। लेकिन समय-समय पर किसी को उसके कर्मों के आधार पर अपनी ऊर्जा से प्रबुद्ध करता है, जिसे हम एनलाईटनमैंट या ज्ञानोदय  कहते हैं।

हमारी भौतिक प्रकृति 24 तत्वों के मिश्रण से बनी है, 24 तत्वों से युक्त है। परन्तु हमारी यह भौतिक प्रकृति एक अस्थाई अभिव्यक्ति है। लेकिन पूरे ब्रहमाण्ड के रखाव और पोषण के लिए पूर्ण संसाधनों का उत्पादन करने के लिए पूरी तरह से समायोजित है, पूरी तरह से सक्षम है। फिर भी हमारी भौतिक प्रकृति का समय पूर्व निर्धारित है, जो कि सर्वोच्च सत्ता, दाता, की ऊर्जाओं द्वारा निर्धारित किया गया है। इसके बावजूद भी, सर्वोच्च नियंत्रक न होते हुए भी, हम दाता की भौतिक प्रकृति से छेड़-छाड़ करते हैं। उसको नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं।

भौतिक चेतना के दो चैत्य विभाग हैं। एक कर्त्ता का और दूसरा भोक्ता का। क्रीयेटर का और इनजोयर का। ये दो भौतिक प्रकृति के चैत्य भाग हैं। और भौतिक चेतना निरंतर और अविनाशी नहीं है, पर दो चैत्य भाग लिए हुए है – एक कर्त्ता का और दूसरा भोक्ता का।

हम परमात्मा के अंश होने के कारण निर्माता और भोक्ता दोनों हैं, पर सर्वोच्च निर्माता नहीं हैं। भौतिक सृष्टि का हिस्सा होने के कारण, हम देह रुप में, शारीरिक चेतना लिये हुए, कर्त्ता और भोक्ता दोनो हैं। क्रियेटर और इन्जोयर बोथ।  हम चीजों का निर्माण करते हैं, उनका आनन्द उठाने के लिए। क्योंकि कोई भी चीज बनाई नहीं जा सकती अगर उसकी उपयोगिता में कोई आनन्द ना हो। चाहे वह आनन्द कितना भी अस्थाई क्यों न हो। चीजों के निर्माण से होने वाले आनन्द की अनुभूति के कारण ही हम  चीजों का निर्माण करते हैं।

इस प्रकार चीजों को बनाने की प्रक्रिया में हम यह भूल जाते हैं कि हम दाता नहीं हैं, सर्वोच्च निर्माता नहीं हैं। हम केवल दाता की रचना हैं। हम उसकी सृष्टि का अविनाशी हिस्सा जरुर हैं, पर सृष्टि रचियता कैसे हो सकती है? रचना, रचियता कैसे हो सकती हैं? सृष्टि रुप में, हम तो रचनाकार के साथ केवल कुछ बनाने में सहयोग कर सकते हैं। रचियता नहीं हो सकते। रचना तो केवल सहयोग कर सकती है। और ठीक ऐसा ही होता है, ठीक ऐसा ही होता है।

दाता भौतिक चेतना से मुक्त है। दाता सर्वोच्च चेतना है। वो भोग और गैर-भोग से परे है। सुख और दुख के प्रति उदासीन है। लेकिन वह सर्वोच्च निर्माता है और हम उसकी सृष्टि। जीव (आत्मा) रुप में हम दाता की श्रेष्ठ प्रकृति हैं। हमें दाता के साथ हर संभव सहयोग करना चाहिए और उसे प्रसन्न करना चाहिए, जबकि हम जानते है कि दाता खुशी और गम दोनों से कहीं परे है। सुख और दुख की भावना से दूर है। फिर भी, हम चीजों की अपनी रचना में, उन्हें बनाने में, ये भाव जरुर रखें कि हम उनके निर्माण में दाता को खुश कर रहे हैं। हम दाता को प्रसन्न करने की कोशिश कर रहे हैं। उसकी रचना में एक सकारात्मक योगदान कर रहे हैं। ये भाव जरुरी है। तभी हम चीजों का आनन्द ले सकते हैं। तभी हम एक अच्छे भोक्ता हो सकते हैं। हम, भूलकर भी, कभी चीजों के अपने निर्माण से, दाता की सृष्टि में निषेधात्मक बाधा ना डालें। तभी हम चीजों का सच्चा आनन्द ले पायेंगे। सर्वोच्च निर्माता की रचना में सहयोग ही हमारे आनन्द का कारण होना चाहिए। वो ही सच्चा आनन्द है।

इस आध्यात्मिक यात्रा पर, आपके साथ मेरी बहुत शुभकामनाएँ!

ऊँ तत् सत्!

…परम द्विज