परमात्मा की प्राप्ति का सबसे सरल और प्रमाणिक मार्ग
(Based on the live discourse of Param Dwij)
(परम द्विज के प्रवचन पर आधारित)
ऊँ तत् सत्; दाता याद है!
हमारे जीवन के बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों में से एक प्रश्न शायद ये भी है कि क्या भगवान है? क्या ईश्वर है? अल्लाह, खुदा, परमात्मा या गाॅड है क्या? हम सब समझते हैं, जानते हैं कि नानक हैं, कृष्ण हैं, राम हैं, जीसस हैं, मोहम्मद हैं, बुद्ध हैं, महावीर हैं, पर क्या परमात्मा हैं, दाता हैं? और अगर हैं तो उन्हें कैसे पाया जा सकता है? उन्हें कैसे महसूस किया जा सकता है? क्या कोई एक रास्ता? क्या कोई एक पथ उस मंजिल तक पहुँचा सकता है? और अगर हाँ तो वो कौन सा मार्ग है?
पहले प्रश्न का उत्तर शायद आसान है, कि हाँ परमात्मा है, अल्लाह है, गाॅड है, दाता है। उसकी एग्जिस्टेंस है, वास्तव में सिर्फ उसी की ही एग्जिस्टेंस है, मौजूदगी है। दाता ही एक मात्र एब्सोल्यूट ट्रूथ है। एक्चुअली ये पुरी कायनात, ये पूरी एग्जिस्टेंस वो ही तो है।
हम सब बात करते हैं कि मैं-मैं हूँ, आप-आप हैं, वो-वो है, ये-ये है। हर कोई व्यक्तित्व, हर कोई व्यक्ति, हर कोई प्राणी अलग-अलग है। क्या इस सब में हमें कुछ एक नजर आता है, जो सबको जोड़े हुए है? ये पूरी की पूरी एग्जिस्टेंस में उस एक का एहसास जरुरी है।
तो वो कौन सा मार्ग है? विभिन्न प्रकार की अलग-अलग संस्थाओं में, अलग-अलग धर्मों में, अलग-अलग विश्वासों में, एक चीज सांझी जरुर है, और वो है तीन प्रकार की मान्यतायें। परमात्मा की मंजिल, दाता की मंजिल, खुदा, अल्लाह, गाॅड, ईश्वर या एक ओंकार की मंजिल तक पहुँचने के तीन विभिन्न मार्ग।
और वो तीन रास्ते कौन से हैं? एक रास्ता जो शायद सबसे ज्यादा प्रचलित है, सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, और वह है भक्ति योग। आप सुबह उठते हैं, पूजा करते हैं, पाठ करते हैं, मंदिर जाते हैं, चर्च जाते हैं, पाँच बार नमाज पढ़ते हैं, इत्यादि। इसी तरह संध्या का पूजन करते हैं। खाने से पहले दाता को खाने खिलाते हैं। आरती, भजन, प्रेयरस और ये सब कुछ करते हैं। तो भक्ति योग एक रास्ता है।
पर क्या भक्ति योग में सिर्फ अन्ध-भक्ति है या आप अपनी भक्ति को जानते भी हैं? क्या आप अपनी भक्ति के प्रति उदासीन तो नहीं हैं। या भक्ति एक अनुष्ठान, संस्कार या क्रिया मात्र ही तो नहीं है। हमें इस चीज का विश्लेषण करना जरुरी है कि भक्ति योग कहीं ऊपरी सतह तक ही तो नहीं है। या वो भक्ति इतनी अंदर है कि आपका बिहेवीयर ही है, आपकी नेचर ही है, आपकी स्वभाविक प्रकृति ही है, आपका दिवानापन ही बन गई है। शायद बहुत से लोगों के लिए ये मुश्किल होगा।
आप परमात्मा में विश्वास करते हैं । आप परमात्मा की, दाता की, एग्जिस्टेंस को, उसके होने को समझते हैं। पर क्या वो समझ सिर्फ ऊपरी सतह तक ही तो नहीं है? या फिर आप इसे तत्व से जानते हैं? सिर्फ समझना काफी नहीं है, उसे जानना और उसे अपने अंदर ढालना और उसमें समा जाना एक अति उत्तम अनुभव ही नहीं बल्कि दाता तक पहुँचने के लिए अति आवश्यक भी है। और जब तक ये ना संभव हो पाए, तब तक भक्ति योग पूरा नहीं है।
और दूसरा रास्ता कर्म योग, यानि निष्काम कर्म योग का है। आप कर्म करते हैं। क्या आपको फल की चिंता रहती है? आप व्यापार शुरु करते हैं या आप राजनीतिज्ञ हैं, सिंगर हैं या किसी प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे हैं – तो क्या आप उस कर्म में इतना डूब जाते हैं कि आपको उसके फल की कोई चिंता नहीं रहती, कामना नहीं रहती, इच्छा नहीं रहती? क्या कर्म करना कर्मफल की प्रेरणा से बहुत आगे निकल जाता है? निष्काम कर्म योग सभी योगों में सर्वोत्तम है और निष्काम कर्म योग में भक्ति समाहित है। दूसरी मानव कृतियों और दाता प्रेरित या आदेशित या कथित कृतियों के अनुरुप, कर्म, भक्ति और ज्ञान से परिपूर्ण श्रीमद्भगवत गीता के अठारह अध्यायों में से प्रथम छः अध्याय इसी निष्काम कर्म योग को समर्पित हैं। निष्काम का अर्थ है कि आप कर्म कर रहे हैं और कर्म हो रहा है, लेकिन आप कर्म नहीं कर रहे हैं। क्योंकि आप कर्म तो कर रहे हैं, पूरे जी-जान से, पूरी आत्मीयता से, लेकिन उसके फल की चिंता तो क्या, अभिलाषा मात्र तक भी नहीं है। फल की अपेक्षा ही नहीं है। तो वो कर्म बहुत ज्यादा सुदृढ़ तो होगा ही, लेकिन उस कर्म का आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आप जीवन में हैं, कर्म तो होगा, आप खाली नहीं बैठेंगे। वो कर्म जो किया जाए, जो आपको करना है, जिसको होना है, लेकिन आप उसमें सम्मिलित नहीं हैं। आप वहाँ नहीं हैं, सिर्फ कर्म है, और ऐसा कर्म निष्काम कर्म है, अकर्म है। तो ये कर्म-योग।
और तीसरा रास्ता – ज्ञान योग, सांख्य योग, वो नाॅलिज जहाँ पर हमें पहुँचना है – उस रियेलाईजेशन के लिए, उस अहसास के लिए, उस एक और सिर्फ एक दाता की मंजिल को पाने के लिए।
लेकिन कौन सा पहले? कर्म योग, ज्ञान योग या भक्ति योग। ये तीन अलग-अलग रास्ते हैं या तीनों एक दूसरे से जुड़े हैं। या एक रास्ता दूसरे की तरफ जाता है और दूसरा तीसरे की तरफ। क्या तीनों में कोई संबंध है? क्या किसी एक रास्ते से उस मंजिल तक पहुँचा जा सकता है? या एक रास्ता दूसरे रास्ते की तरफ ले जाता है और दूसरा तीसरे की तरफ और फिर वो मंजिल?
ये प्रश्न आसान हो सकता है। लेकिन जितना आसान है उतना ही ज्यादा कोम्पलैक्स है, उतना ही ज्यादा डिफीकल्ट है, मुश्किल है।
आप भक्ति योग में हैं । आप परमात्मा की एग्जिस्टेंस को, दाता की एग्जिस्टेंस को, अल्लाह या ईश्वर को मानते हैं, विश्वास करते हैं। विश्लेषण कीजिए कि क्या वो किसी डर के कारण तो नहीं है कि कहीं आपके साथ कुछ बुरा ना हो जाए? क्या वो इस कारण तो नहीं है कि आपको कुछ पाना है, इस जन्म में या अगले जन्म में। मैंने बहुत सारे लोगों को देखा है कि वो मंदिर जाते हैं, चर्च जाते हैं, मस्जिद जाते हैं और परमात्मा से माँगते हैं कि हे खुदा हमें ये दे दे। हमें ये चाहिए। हमें वो चाहिए। औलाद दे दे, धन दे दे, व्यापार दे दे, तरक्की दे दे इत्यादि। या हमारा अगला जन्म अच्छा हो और हम स्वर्ग में चले जाएं, जन्नत में चले जाएं। क्या इसलिए हम भक्ति योग में हैं? हम दाता की एग्जिस्टेंस को मानते हैं। पर जब तक ये मान्यता किसी डर, लालच या इच्छा के वशीभूत है तब तक हम भक्ति योग में नहीं हैं, चाहे फिर भक्ति कितनी भी प्रगाढ़ क्यों ना हो। जब वास्तव में भक्ति योग होगा, जब वास्तव में आप भक्ति योग में होंगें, तब ये सारी इच्छाएँ, कामनाएँ, लालच या डर अपने आप खत्म हो जाऐंगे।
परन्तु भक्ति में, वहाँ तक, उस हद तक, उस जगह तक पहुँचना आसान नहीं है। आप भक्ति कर सकते हैं पर सही अर्थ में भक्त भी हो सकते हैं, ये जरुरी नहीं। भक्ति परीक्षा तो हो सकती है, पर भक्त होने का प्रमाणपत्र नहीं। वो अनगिनत लोग जो दाता से दिन रात मांगते हैं, वो ही सब लोग अपने मन में शंका भी लिए बैठे हैं कि क्या भगवान है? सतही भक्ति का कोई लाभ नहीं।
दूसरा है, कर्म योग। तो क्या कर्म योग से आप परमात्मा को पा सकते हैं? आप निष्काम कर्म कर रहे हैं और आपको किसी भी प्रकार के फल की इच्छा नहीं है। आप जो भी कर्म कर रहे हैं वो दाता को समर्पित है – कर्म और फल दोनों। आप उसमें सम्मिलित नहीं हैं । वास्तव में आप कर्म कर ही नहीं रहे, दाता ही आपके जरिये आपसे कर्म करवा रहा है। तो ऐसा कर्म निष्काम कर्म है। वो निष्काम कर्म तो है, पर क्या इसके जरिए आप दाता की मंजिल तक पहुँच सकते हैं, उसे पा सकते हैं?
लेकिन अगर आप गौर करें तो आप देखेंगे कि निष्काम कर्म तभी संभव है, तभी मुमकिन है, जब उसमें सही अर्थों में सच्ची भक्ति समाहित हो, सम्मिलित हो। तब आप निष्काम कर्म योग के जरिये, भक्ति योग में स्वतः स्थित हो जायेंगे – बिना प्रयास के। सोचने योग्य है कि आप कैसे बिना फल की इच्छा के कोई कर्म कर सकते हैं, अगर उसमें दाता के प्रति, उसकी एग्जिस्टेंस के प्रति सच्ची श्रद्धा और भक्ति न हो? तो कर्म योग में भक्ति योग समाहित है, स्वतः, आॅटोमैटिकली।
अतः निष्काम कर्म योग के जरिये आप भक्ति योग तो पा सकते हैं पर शायद भक्ति योग के जरिये निष्काम कर्म योग को पाना मुश्किल है।
लेकिन आप धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, दिन में एक बार, दूसरे दिन में दो बार, तीसरे दिन में, तीन बार, छह महीने के बाद दिन में पचास बार, एक साल के बाद दिन में सौ बार, अकर्म करने का, निष्काम कर्म योग में सधने का अभ्यास करें। आप जो भी कर्म करें, उसको देखें, अपने आप को अलग खड़ा करें, सिर्फ दर्शक बनें। पूरे जी-जान से कर्म करें, लेकिन कोई इच्छा ना रखें। प्रैक्टीस करें, अभ्यास करना शुरु करें, तो आप देखेंगे कि आपका भक्ति योग, जो वास्तव में भक्ति योग है, वो दिन-प्रतिदिन स्वतः ही सुदृढ़ होता जायेगा, आपके बिना प्रयास के। क्योंकि निष्काम कर्म योग में भक्ति समाहित ही है।
वेदों में तीन भाग हैं – संस्कार, ध्यान और ज्ञानोदय। और वेदों के ठीक अनुरुप, गीता में भी अठारह अध्यायों को तीन भागों में बाँटा गया है। पहले छह अध्याय, कर्म योग के बारे में हैं। बीच के छह अध्याय, भक्ति योग के बारे में हैं। आखिरी छह अध्याय, ज्ञान योग के बारे में हैं। श्रीमद्भगवत गीता में कर्म और ज्ञान को अलग-अलग रखा गया है। बीच में भक्ति योग का वर्णन है। क्योंकि कर्म योग और ज्ञान योग दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। लेकिन भक्ति योग, कर्म योग और ज्ञान योग दोनों में समाहित है।
भक्ति योग का निष्काम कर्म और ज्ञान योग दोनों में समाहित होना ही सभी प्रकार की दुविधाओं और शंकाओं को खत्म कर देता है।
आप सिर्फ भक्ति योग से भी दाता की मंजिल को पा सकते हैं। भक्ति योग की परिपूर्णता से। जैसे मीरा, रामानुज, सूफी सन्त और बहुत सारे और लोग। आप भक्ति कीजिये, भक्ति योग आपको मिलेगा, और भक्ति योग आपको कर्म और ज्ञान योग के द्वार तक लेकर जायेगा, जहाँ आपको स्वयं और दाता का एहसास होगा, रियेलाईजेशन होगा। वहाँ आपको वो मंजिल दिखाई देगी। पर उस सतह का भक्ति योग शायद सबके लिए संभव नहीं है।
निष्काम कर्म योग से शुरुआत करने पर भी आप उस मंजिल तक पहुँच सकते हैं। क्योंकि निष्काम कर्म में भक्ति समाहित है और पूरी तरह से समाहित है। क्योंकि निष्काम कर्म योग बिना भक्ति योग के हो ही नहीं सकता। आप निष्काम कर्म कीजिये, धीरे-धीरे अकर्म करने का अभ्यास कीजिये, भक्ति योग आपके लिए स्वतः फलित होगा।
मेरी शुभकामनाएँ कि निष्काम कर्म द्वारा और भक्ति योग के सहयोग से आपको चीजों और तथ्यों की स्पष्टता का एहसास हो, जो आपके जीवन में ज्ञानोदय का प्रकाश लाये।
खुद को परिवर्तित कीजिये। आप जानबूझ कर, समझबूझ से, इसी जीवन में, दोबारा जन्म लें। वो एक सोचा समझा कदम होगा। मेरे साथ आइये। खुद को परिवर्तित कीजिये। दाता को पाने की, उस एहसास में डूबने की, वो एहसास ही बन जाने की प्रक्रिया की शुरुआत करें।
मेरी शुभ कामनाएँ।
ऊँ तत् सत्!
…परम द्विज