ऊँ तत् सत्; दाता याद है!
आज एक विचार करते हैं। मानिये कि एक दिन सुबह बहुत जल्दी हो गई और आप जागकर अच्छा महसूस कर रहे थे, मानो आपके चारों ओर शांति हो। अब आप बिस्तर पर नहीं रह सकते थे। तो, आप अपने घर के बाहर नदी के किनारे टहलने के लिए निकले, जो आपके घर से ज्यादा दूर नहीं थी। आप शान्त, अति शान्त थे तथा आपके मन में कोई विशेष विचार नहीं था, कोई द्वंद्व नहीं था, सब कुछ जैसे शुन्य सामान था।
चाँद अभी भी आसमान में था। अभी सूरज नहीं निकला था और आप नदी के किनारे-किनारे चल रहे थे। आपने अपने जूते निकाल लिए और हाथ में ले लिए और नंगे पैर चलने लगे| आप बस आस-पास की और अपने भीतर की शांति का आनंद ले रहे थे। आप देख सकते थे कि आपके आस-पास कोई नहीं था; केवल आनंददायक शांति थी। नदी में पानी धीरे-धीरे बढ़ रहा था मानो आपकी सैर की गति से मेल खाने की कोशिश कर रहा हो। आकाश में तारे चमक रहे थे और चाँदनी इतनी निर्मल और साफ़ थी कि आपको नदी के किनारे का रास्ता दिखा सके।
धीरे-धीरे सूरज उगने लगा और रौशनी फैलने लगी। अब वातावरण में थोड़ी अधिक रौशनी थी और आपको फूलों की छोटी-छोटी झाड़ियाँ हवा के साथ लहराती हुई दिखाई देने लगीं। इससे आपकी खुशी और शांति और बढ़ गयी। आप चल रहे थे और लगातार प्रकृति की वास्तविक सुंदरता को निहार रहे थे, आपके एक तरफ नदी का पानी और दूसरी तरफ लहराते हुए फूल थे। जैसे-जैसे वातावरण में रौशनी बढ़ती गई, आपको ज़मीन पर झाड़ियों की शाखाओं से गिरे हुए कुछ फूल नज़र आने लगे। आप चलते रहे और उन मुरझाए फूलों और ज़मीन पर उनकी बिखरी हुई पंखुड़ियों को देखते रहे, लेकिन फिर भी आपके मन में कोई विशेष विचार नहीं आया। आप बस बहते पानी के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चल रहे थे।
अचानक आपके मन में एक सवाल आया, जैसे किसी के भी मन में आ सकता है। आपने सोचा, “जीवन क्या है?” “हम क्यों पैदा हुए हैं?”
आपने सोचा कि क्या झाड़ियों में फूल खुश थे? उन्हें शाखाओं से अलग क्यों होना पड़ा? उन्हें ज़मीन पर क्यों गिरना पड़ा? क्या वे अब मर चुके हैं? जब वे शाखाओं पर थे, तो क्या वे जीवित थे? आपका मन अचानक ऐसे प्रश्नों में पूरी तरह उलझ गया। आप अभी भी चल रहे थे, लेकिन अब आपका ध्यान उस प्राकृतिक सुंदरता से दूर था जिसका आनंद आप कुछ समय पहले ले रहे थे। जब आप अपने विचारों में जीवन और मृत्यु की खोज कर रहे थे, अचानक आपका ध्यान मानव जीवन पर केंद्रित हो गया। आपने सोचा कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? हम जन्म क्यों लेते हैं? क्या कारण है कि हमें इस जीवन में आना पड़ता है और फिर एक दिन मरना पड़ता है? क्या हमारा जन्म महज़ एक संयोग है या इसके पीछे कोई वास्तविक उद्देश्य है? क्या जीना मात्र ही जीवन है या इसके पीछे कोई कारण है कि हम जन्म लेते हैं? क्या कोई उद्देश्य है जिसके लिए हम इस भौतिक प्रकृति में जन्म लेते हैं? क्या कारण है कि एक अनश्वर आत्मा इस नश्वर भौतिक प्रकृति में जन्म लेती है?
और आपके मस्तिष्क ने तर्क दिया कि बिना कारण तो कुछ भी नहीं होता है। तो हमारे जन्म के पीछे सर्वोच्च आत्मा, यानि ‘दाता’, का कोई उद्देश्य अवश्य होगा, क्योंकि आत्मा रूप में हम ‘दाता’ के ही तो अंश हैं। इतना बड़ा जीवन महज़ एक हादसा नहीं हो सकता। आप चलते रहे, लेकिन आपका पूरा ध्यान जीवन का उद्देश्य खोजने पर था।
यदि हमारे जीवन के पीछे कोई उद्देश्य है तो यह उद्देश्य किसका है? क्या इस धरती पर अपने जीवन से कुछ हासिल करना हमारा अपना उद्देश्य है या इसके पीछे हमसे बड़ी सत्ता, परम-आत्मा का कोई उद्देश्य है?
आपके मन में विचार आया कि मनुष्य रूप में हमारी चेतना सभी जीवित प्राणियों से उच्चतर स्तर की चेतना है, जिनमें झाड़ियों पर लगे फूल भी शामिल हैं जिन्हें आप कुछ समय पहले देखने का आनंद ले रहे थे। क्या फूल या अन्य जीवित प्राणी भी अपने किसी व्यक्तिगत उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जन्म लेते हैं? आपके मन ने उत्तर दिया कि शायद नहीं। तो फिर यह जीवन क्यों है? पर फिर भी बिना कारण तो इतनी बड़ी चीज़, एक पूरा जीवन, संभव नहीं हो सकता। तो इसका अर्थ हुआ कि या तो इस जीवन के पीछे परम-आत्मा का, ‘दाता’ का, कोई उद्देश्य है, या फिर हमारे जीवन के पीछे ‘दाता’ का उद्देश्य हमें हमारे इस जीवन से, हमारे ही उद्देश्य को प्राप्त करने में हमारी मदद करना है। सभी प्राणियों में चेतना के उच्चतम स्तर के रूप में, मनुष्य ‘आत्मा’ का भौतिक प्रकृति में जन्म लेने का अपना उद्देश्य हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से आपके जन्म के पीछे एक सर्वोच्च शक्ति भी है, जिसका आपके जन्म से अपना उद्देश्य भी हो सकता है। हो सकता है, कि उसने आपको, उसकी खुद की इच्छा से, उसके अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान देने के लिए इस धरती पर भेजा हो? जैसे ही आपके मन में यह विचार आया, वैसे ही आपकी आँखों के सामने से विचारों का धुंधलापन छंटने लगा। आपको यह विचार तर्क संगत और सटीक लगेगा।
अब सवाल यह है कि आपके जन्म के पीछे ‘दाता’ का क्या कारण हो सकता है, क्या उद्देश्य हो सकता है?
भौतिक प्रकृति में शरीर के माध्यम से जन्म दिलवाकर हमें इस धरती पर भेजने के ‘दाता’ के दो संभावित उद्देश्य हो सकते हैं। एक उद्देश्य यह है कि वह चाहता है कि आप उसकी रचना में सकारात्मक योगदान दें, और उसी के अनुरूप उसने आपको इस जीवन में दूसरे प्राणियों से ज्यादा समझ और शक्ति भी दी है। और दूसरा उद्देश्य यह है कि ‘दाता’ के अभिन्न अंग के रूप में, ‘दाता’ चाहता है कि आप अपनी चेतना के स्तर को उच्चतम संभव स्तर तक बढ़ाएं ताकि आप ‘दाता’ के सभी गुणों के साथ लगभग शुद्ध चेतना का स्तर प्राप्त कर सकें और उसमें विलीन हो जाने में, उसके साथ ‘एक’ हो जाने में सक्षम हो सकें, और ठीक उसी के अनुरूप दाता ने आपकी चेतना को वह सक्षमता और समझ भी दी है।
आप अपनी चेतना के स्तर को बढ़ाएं और अपने गुणों को उस स्तर तक ऊपर उठायें कि आप गुणों में ‘दाता’ के बराबर हो जाएँ, ताकि आप परमात्मा में विलीन होकर एक हो सकें। ‘द्विज’ दर्शन के अनुसार, हम हर चीज के ‘एकीकरण’ में विश्वास करते हैं| हर चीज के बीच एक सहज-संबंध, जो और कुछ नहीं बल्कि हर चीज में ‘दाता’ की ऊर्जाओं की उपस्थिति को दर्शाता है। आप स्वयं को ‘अलग’ पहचान के रूप में महसूस कर सकते हैं, लेकिन क्या हम वास्तव में अलग हैं? हम सब, ये पूरी कायनात, ये पूरी सृष्टि एक है, जो एक पवित्र और अटूट बंधन से एक दूसरे से जुड़े हुए है?
उदाहरण के लिए, मान लीजिए, आप किसी समुद्र में जाते हैं और उस समुद्र से आप पानी की पांच अलग-अलग बूंदें लेते हैं। आइए मान लें कि ये पांच अलग-अलग बूंदें आपको बताती हैं कि वे सभी पांच अलग-अलग नदियों से आती हैं- एक गंगा से, दूसरी सरस्वती से, तीसरी बूंद बताती है कि वह यमुना नदी से है, इत्यादि। इसलिए, अलग-अलग बूंदों के रूप में, वे अलग-अलग प्रतीत हो सकती हैं, और फिर उनकी उत्पत्ति भी अलग-अलग है। वे अलग-अलग रास्तों से, अलग-अलग पृष्ठभूमि से से आती हैं। लेकिन उन सभी में पानी के गुण कुछ हद तक समान होते हैं। और जब वे समुद्र में विलीन हो जाती हैं, तो वे समुद्र का हिस्सा बन जाती हैं। बिल्कुल समान गुणों के साथ वे समुद्र ही होती हैं। मनुष्य रूप में, हम ‘दाता’ के गुणों के साथ ‘दाता’ की ऊर्जाओं के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं|
हमारे अंदर दाता के गुण सूक्ष्म मात्रा में हो सकते हैं, पर फिर भी वो और ‘दाता’ की ऊर्जाएं, हमें ‘एक’ के रूप में एक साथ बांधते हैं। और, जब हम अपनी चेतना के स्तर को उस स्तर तक उठा लेते हैं जो परमात्मा में विलीन होने में सक्षम है, तो हम ‘एक’ के अलावा और कुछ नहीं रह जाते, पानी की बूंदों की तरह एक समुद्र हो जाते हैं, विशालतम और असीम हो जाते हैं।
विभिन्न संगठित धर्म स्वयं को अलग-अलग देख सकते हैं। वे देख सकते हैं कि उनके दर्शन भिन्न हैं। वे देख सकते हैं कि उनके रास्ते अलग-अलग हैं। वे एक दूसरे को प्रतिद्वंद्वी के रूप में भी देख सकते हैं। लेकिन यह सच नहीं है, यह गंभीरता से सच नहीं है। हर धर्म का एक ही उद्देश्य है और वह है सत्य की खोज करना, ईश्वर की खोज करना, ‘दाता’ का एहसास करना। तो दर्शन और दृष्टिकोण भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उद्देश्य तो एक ही है। और जब लक्ष्य एक ही हो तो वास्तव में उनमें कोई अंतर हो ही नहीं सकता, कोई अंतर रह ही नहीं जाता।
अलग-अलग धर्म अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं के आधार पर ‘दाता’ के अस्तित्व को अलग-अलग तरह से देख सकते हैं। कुछ लोग ‘दाता’ को हमसे अलग, एक अलग इकाई के रूप में, देख सकते हैं, जो हमें नियंत्रित करता है और हमारे कार्यों के आधार पर हमें पुरस्कार या दंड देता है। कुछ लोग ‘अद्वैत’ में विश्वास कर सकते हैं लेकिन ‘अद्वैत’ का मतलब भी एक नहीं है। इसका मतलब है ‘दो नहीं’, लेकिन ‘एक’ भी नहीं। जबकि, अन्य लोग हर चीज़ में और हर जगह परमात्मा को देख सकते हैं।
इसलिए, एक दर्शन में, हम परमात्मा को एक अलग इकाई के रूप में देख सकते हैं। हम उसे ढूंढना चाहते हैं, हम देखना चाहते हैं कि वह कैसा दिखता है। और, फिर हम अपनी कल्पनाएँ बनाते हैं, जो समय के साथ, समाज की परिस्थितियों के साथ, मजबूत मान्यताओं में बदल जाती हैं। हमारे भीतर, जिसके विरुद्ध कोई तर्क तक नहीं टिकता। परमात्मा का भय, उसकी कृपा की भावना से और अधिक मजबूत होता जाता है| इस जन्म, या भविष्य के जन्म में, एक अदृश्य का भय। यह डर कि आपको उस पर विश्वास करना होगा, उसकी स्तुति करनी होगी। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपको सज़ा मिल सकती है।
और दूसरी मान्यता ‘अद्वैत’ दर्शन के अनुसार, मनुष्य उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है जो ईश्वर के इतना करीब है कि आप उससे अलग महसूस नहीं करते हैं। वह अब भी आपसे अलग है लेकिन आपके बहुत करीब है। एक शरीर में दो दिल की तरह।
फिर तीसरी मान्यता, हर चीज़ में ‘एकीकरण’ का हमारा द्विज दर्शन है। सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। कुछ भी अलग नहीं है। और वह कनेक्शन है कि ‘दाता’ की ऊर्जा हर चीज़ में प्रवाहित हो रही है। जैसे मैं कह रहा था कि पानी की पाँच बूँदें अलग-अलग नदियों से आती हैं, लेकिन जब वे समुद्र में मिल जाती हैं, तो समुद्र बन जाती हैं। हम भी ‘दाता’ के अभिन्न अंग हैं, और उच्चतम स्तर की चेतना होने के कारण हम उसी में विलीन होने की क्षमता भी रखते हैं, जैसे पानी की बूंदें समुद्र में मिल जाती हैं। बस अपने आप को पानी की एक बूंद के रूप में देखें, अपनी सभी गुणवत्ता के साथ, और ‘ब्रह्म’ के साथ एक होने की क्षमता के साथ। ‘ब्रह्मांड’ को एक विशाल समुद्र के रूप में और संपूर्ण ‘ब्रह्मांड’ की परमात्मा को ‘दाता’ के रूप में देखें। ‘दाता’ की ऊर्जाओं और गुणों के साथ, हम उसके अभिन्न अंग हैं। हम सभी एक का ही हिस्सा हैं। उस एक ‘दाता’ का ही अंश हैं। हम सभी एक हैं। हम सभी ‘दाता’ की ऊर्जाओं के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
उदाहरण के लिए, आपके चारों ओर की वायु, स्थान, आकाश आदि वही है जो मेरे चारों ओर है, और हम सबको एक साथ बांधे हुए है, जोड़े हुए है। और इसी तरह, ये सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। चाहे वे पेड़ हों, जानवर हों, पक्षी हों, या कीड़े-मकौड़े हों, और यही है ‘एक’ का अहसास। यह ‘एकीकरण’ का अहसास ‘दाता’ के साथ ‘एक’ हो जाने के लिए जरूरी है।
और यही द्विज परंपरा में हमारा धार्मिक दर्शन और द्विज जीवन जीने का तरीका और उद्देश्य है। यही दर्शन हमें हमारे ‘एकीकृत विश्व’ के निर्माण की दृष्टि की ओर अग्रसर करेगा, ताकि हम पूर्ण और सशक्त रूप से ‘दाता’ की सृष्टि में एक सकारात्मक योगदान दे सकें। जब हम वास्तव में अभ्यास के माध्यम से इसका एहसास करते हैं, तो हमें ‘ब्रह्म’, यानि ‘ब्रह्मांड’ की आत्मा – ‘दाता’, सर्वोच्च चेतना, सर्वोच्च अस्तित्व, परमात्मा के अस्तित्व का एहसास होता है। ‘ब्रह्म’, पूरे ब्रह्माण्ड की आत्मा है, परम-आत्मा है, ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का स्त्रोत है।
द्विज दर्शन में हम ‘ब्रह्म’ को ‘ब्रह्मांड’ के आकार में ‘ब्रह्म ज्योति स्तम्भ’ के रूप में दर्शाते हैं। ‘ब्रह्म ज्योति स्तम्भ’ -‘ब्रह्म’ यानि ‘दाता’ का प्रतीक है। जिसके जरिये, हम सतत अभ्यास द्वारा, ‘दाता’ के साथ ‘एक’ का अहसास कर, अपनी चेतना का स्तर उठाने और ‘दाता’ के सम्पूर्ण गुणों को अपने में पूर्णतया समाहित करने का प्रयास करते हैं।
अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग मान्यताएँ हो सकती हैं, लेकिन सभी धर्म एक बात मानते हैं कि परम-आत्मा है। अपनी-अपनी भाषाओँ के आधार पर विभिन्न धर्म परम-आत्मा को विभिन्न नामों से पुकार सकते हैं, जैसे कि ‘परमात्मा’, ‘ईश्वर’ ‘भगवान्’, ‘खुदा’, ‘अल्लाह’, ‘ॐ’, ‘ओमकार’, ‘दाता’ इत्यादि। पर इससे कई परम-आत्माएं तो पैदा नहीं हो जाती। परम सत्ता तो एक ही है। सर्वोच्च चेतना तो एक ही है। आप भले ही उसे कोई भी नाम दें, या कोई भी नाम ना दें। उसे फर्क नहीं पड़ता। सम्बोधन के लिए उसे किसी नाम से पुकारना आपकी मजबूरी है, परमात्मा की नहीं।
जैसे सभी नदियों के अलग अलग नाम हैं, जैसे सभी नदियाँ अलग-अलग रास्तों का अनुसरण करती हैं, लेकिन समुद्र की ओर ही बहती हैं और समुद्र में विलीन हो जाती हैं, समुद्र के साथ ‘एक’ हो जाती हैं। मेरी दृष्टि में धर्म बिल्कुल नदियों की तरह हैं। वे सभी एक ही दिशा में बह रहे हैं लेकिन अलग-अलग रास्तों से। द्विज दर्शन में, हम ‘दाता’ की ऊर्जा के माध्यम से हर चीज में ‘एकीकरण’ होने में विश्वास करते हैं। हम हर चीज के बीच मजबूत संबंध में विश्वास करते हैं जो हर चीज को एक साथ बांधता है। हमारा मानना है कि चेतना के उच्तम स्तर की उपलब्धि के माध्यम से, हम ‘दाता’ का, परम-आत्मा का, साक्षात्कार कर सकते हैं और उसमें विलीन हो सकते हैं।
यदि आप यह अहसास चाहते हैं, तो एक मिनट के लिए अपनी आँखें बंद करें और उस परम संबंध पर अपना ध्यान केंद्रित करें। ध्यान करते समय एक मिनट तक ‘दाता’ से उस सम्बन्ध का अहसास करने का अभ्यास करें। धीरे-धीरे, आप अपने आस-पास की हर चीज़ में एकीकरण, जुड़ाव, देखना शुरू कर देंगे। ‘दाता’ को पाने के लिए हमें यह स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि सब कुछ उसी से है, सब कुछ उसी की ऊर्जाओं से है और इस जीवन का उद्देश्य उसमें विलीन हो जाना है। इस धरती पर फिर कभी वापस न आना और उसके साथ ‘एक’ हो जाना है। और, इसके लिए हमें समाज के उन सभी अनुबन्धनों और अनुकूलनों को त्यागना होगा, जो हमारी आध्यात्मिक यात्रा में बाधा बन सकते हैं।
द्विज का अर्थ है कि आप एक ही जन्म के भीतर दूसरा जन्म ले रहे हैं। किसी विशेष जाति, धर्म और राष्ट्रीयता में जन्म लेना आपकी स्वयं की पसंद नहीं थी, लेकिन द्विज के रूप में जन्म लेना आपका निर्णय है, आपकी पसंद है। मृत्यु अपरिहार्य है। मृत्यु आपके जन्म की नियति है। जन्म और मृत्यु के बीच एक लंबा जीवन है।
आप समाज की कंडीशनिंग के साथ पले बड़े होते हैं, जिसे सत्य का एहसास करने के लिए आपको दूर करना होगा। आपको अपनी व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ने के लिए सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग कर, अपने पिछले जन्मों और इस जन्म के सभी प्रभावों (संस्कारों) को, आत्मा से अभ्यास और संयम द्वारा हटाना होगा। आप उन सीखे हुए अनुष्ठानों को करना जारी रख सकते हैं जिन पर आप विश्वास करते हैं और जो आपके विश्वास और आध्यात्मिक केन्द्रिता को बनाए रखने में सहायक हैं।
‘दाता’ की याद में ‘अकर्म’ करना शुरू करें। अकर्म का अर्थ है वह कर्म जो आप व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के बिना और किसी भी प्रकार के फल की आकांक्षा के बिना करते हैं| अकर्म अर्थात सब कुछ उस परमात्मा पर छोड़ दो।
मैं आप सभी को अपनी पसंद से इस जन्म में द्विज रूप में पुनर्जन्म लेने और अपना शेष जीवन ‘जीवित द्विज’ के रूप में जीने के लिए आमंत्रित करता हूं।
मैं आपकी आध्यात्मिक यात्रा के लिए आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ देता हूँ।
ऊँ तत् सत्!
…परम द्विज